मंगलवार, 7 अगस्त 2018

वृक्षारोपण अभियान की हकीकत से रूबरू करवाती यह खबर...


वृक्षारोपण अभियान 

डॉ० ज्ञानचंद्र कटियार जी की कलम से 

( Note - इस खबर के लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में उप निदेशक कृषि विभाग हैं )

वृक्षारोपण का मौसम है। 
नेता जी, अधिकारी जी, एनजीओ, स्वयंसेवी इस समय पेड़ लगाने के लिए आतुर हैं। 
वाकई में यह एक पुनीत कार्य भी है। 

पर पौधे की प्रजाति, गडढे की गहराई, खाद कम्पोस्ट, नीम खली व पौधे की सुरक्षा की बजाए वे अधिक ध्यान दे रहे फोटोग्राफरों व अखबारनवीसों पर - किस न्यूजपेपर से कौन कौन आया, 
अभी कौन नही आ पाया..  
फोन करके बुला लो ताकि कल के अखबार में फोटो सहित अच्छा कवरेज हो सके।
शायद अखबार में छपना ही अभीष्ट है।

फिर आधे आधे फिट गहरे खुदे गडढों में पौधे रखकर पानी डालते हुए फोटो खिंचाकर इतिश्री। 
अगले दिन अखबार में फोटो ढूंढते नजर आएंगे- पौधा जहां रोपा था, वह किस हाल में है इसे ढूंढने की जहमत नहीं उठाएंगे।

  • क्या यही है वृक्षारोपण..?
  • ऐसे ही वृक्षारोपण करेगा इण्डिया..? 

अरे भाई सैकड़ों पोधे लगाने की जरूरत नहीं है। 
इतनी जगह भी तो नहीं। 
संस्थाओं को छोड़ दें तो व्यक्तिगत रूप से हमें एक बरसात में केवल एक या दो पौधे ही रोपने चाहिए पर खूब रुचिपूर्वक। 

मई में एक मीटर गहरा गडढा खोदकर उसकी मिटटी बाहर निकाल देनी चाहिए। 
पूरी गर्मी गडढा खुला पडा रहना चाहिए। 
इस बीच कम्पोस्ट खाद नीम खली आदि की व्यवस्था कर लेनी चाहिए। 

कुछ न हो सके तो गर्मी में किसी सूखे तालाब की मिटटी इकटठी करके रख लीजिए, यह बहुत उपजाऊ होती है। इसे बरसात में गडढे में सतह से लगभग डेढ़ फिट ऊंचा भरकर भरी बरसात में पौधा रोपिए व थाले के आसपास कम खर्च में ही कटीले तार लगाकर सुरक्षा कीजिए, 
पानी देते रहिए। 

अगले वर्ष फिर एक नया पौधा किसी स्थान पर रोपिए, इसकी भी इसी प्रकार से सुरक्षा व देखभाल कीजिए- अगले एक दो वर्षों में जब दो एक पौधे तैयार हो जाएं तब अखबार वालों को बुलाकर फोटो खिंचवाएं, पौधों की जीपीएस लोकेशन सहित खबर अखबार वालों को छापने को दें।

यकीन मानिए अखबार वालों को भी अच्छा लगेगा, वृक्षारोपण का असली मतलब उन्हें भी समझ में आएगा। आप यह कार्य परिवार में किसी नए शिशु के जन्म के समय, जन्मदिन के अवसर पर अथवा किसी बुजुर्ग के निर्वाण दिवस पर तो अवश्य ही करें।

यह है वृक्षारोपण ! 🙏

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रविवार, 8 जुलाई 2018

हम मिडिल क्लास आदमी


#हम_मिडिल_क्लास_आदमी.. 

गौरव सिंह गौतम ( प्रधान संपादक आत्म गौरव न्यूज़.कॉम )

हम मिडिल क्लास आदमी हैं। 
जब हम गोवा नहीं जा पाते तो चुप मार के अपने गाँव या नजदीक ही किसी धार्मिक स्थल चले जाते हैं ।

एक उमर तक ना हम ढेर आस्तिक हैं ना कम नास्तिक। कुछ कुछ मौक़ापरस्त 

पीड़ा में होते हैं तो भगवान को याद करते हैं। 
जब सब कुछ तबाह हो जाए तो भगवान को दोष देते हैं और जब मनोकामना पूरी हो जाए तो भगवान को किनारे कर देते हैं।

हम मोदी ,योगी , अखिलेश आदि नेताओं को गरियाते हैं और एक्टरों शाहरुख , सलमान आदि को पूजते हैं। 

हम अपने नेता विधायक , सांसद खुद चुनते हैं पर उनसे सवाल नहीं कर पाते । 
उनको ना कोस के ख़ुद को कोसते हैं। 
अमिताभ और सचिन हमारे भगवान होते हैं। 

हमको अटल बिहारी बाजपेयी के अलावा कोई और नेता लीडर लगता ही नहीं।

हम वो हैं जो कभी कभी फटे दूध की चाय बना लेते हैं। एक ईयर फ़ोन में दोस्त के साथ रेडियो पे नग़मे सुन लेते हैं। 
गरमी हो या बारिश हमें विंडो सीट ही चाहिए होती है। 
१५ ₹/किलो आलू जब हम मोलभाव करके १३ में और धनिया फ़्री मे लेके घर लौटते हैं तो सीना थोड़ा चौड़ा कर लेते हैं।

हम कभी कभी फ़ेरी वाले से हो किसी बड़े शॉपिंग मॉल में डिस्काउंट के चक्कर में समान अनायास ही ख़रीद लेते हैं। 
हम पैसे उड़ाते तो हैं पर हिसाब दिमाग़ में रखते हुए चलते हैं। 
हम दिया उधार जल्दी वापस नहीं माँग पाते ना ही लिया हुआ जल्दी चुका पाते हैं। 
संकोच जैसे हिमोग्लोबिन में तैरता हो हमारे।

हम ताला मारते हैं तो उसे दो तीन बार खींच के चेक कर लेते है कि ठीक से तो बंद हुआ है ना? 
बिजली की लाइट कटी हो तो बोर्ड की सारी स्विच ओन ओफ़ करके कन्फ़र्म करते हैं की कटी ही है। 
हमें ख़ुद की बिजली कटी होने पे तकलीफ़ तब तक नहीं होती जब तक पड़ोसी के यहाँ भी ना आ रही हो ।

बेकरी वाला बिस्क़िट और हल्दीराम की नमकीन हम सिर्फ़ ख़ास मेहमानों के लिए रखते हैं।
ज़िंदगी में कभी हवाई यात्रा का मौक़ा मिला तो हम उसका टिकट(बोर्डिंग पास सहित) हाई स्कूल-इण्टर की मार्कशीट की तरह सहेज के रखते हैं। 

हम स्लीपर ट्रेन में आठ की आठ सीटों पे बैठे यात्रियों की बात चाव से सुनते हैं और उनको अपनी तकलीफ़ और क़िस्से सुनाते हैं ।

भीड़ में कोई चेहरा पसंद भी आ जाए तो पलट के देखना अपनी तौहीन समझते हैं। 

कोई लिफ़्ट माँग ले तो रास्ते भर ये सोचते रहते हैं कि यार बैठा ही लिया होता। 
हम घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर बस यही हिसाब लगाते हुए आते हैं कि लिए गए ऋण की किश्त और घर के ख़र्चे के बाद कुछ सेविंग मुमकिन है क्या ?

अपने लिए नए जूते लेने के लिए हम दस बार सोचते हैं और दोस्तों के साथ पार्टी में उससे दुगने पैसे उड़ा देते हैं। हम इमोशनल होते हैं तो रो देते हैं पर आँसू नहीं गिराते। आँसू सिर्फ़ वहीं गिराते हैं जहाँ मालूम होता है कि सामने वाला आँसू चुन लेगा।

हम अपनी गलतीयों को याद नहीं करना चाहते। 
वाहवाही को हम ज़िंदगी से ज़्यादा सिरियस लेते हैं। 
हम किसी के व्यंग का जवाब उसे नज़रअन्दाज़ करके देते हैं। 
हम झगड़ा तब तक नहीं करते जबतक सामने वाला इतना इम्पोर्टेंट ना हो। 
हमें दूसरों के आगे चुप रहना पसंद है और अपनों के आगे तो हम उसे चुप करा करा के सुनाते हैं।

कोई सम्मन से बात भर कर ले हम उसे सिर चढ़ा लेते हैं और जो कोई फन्ने खाँ बना तो नज़र में .  
मिडिल क्लास लोग हैं। 
हम माता जी के हाथ का बना सुबह का खाना शाम को भी खा लेते हैं और कभी कभी तो अगली सुबह भी । 

प्रेम को हम सीरियासली लेते हैं। 
हम जब प्रेम करते हैं और तो अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं उनपे और बना लेते एक मुकम्मल दुनिया। अपने अपने बजट से। 
मिडिल क्लास आदमी अपनी छोटी छोटी ख़्वाहिशों को बड़े बड़े अरमान के साथ जी लेता है।

गाने की लिरिक्स ना याद हो तो आधा गा के पूरी धुन गुनगुना लेते हैं। 
कभी कभी शैम्पू न मिलने पर साबुन से बाल भी धुल लेते हैं । 
छोटी छोटी ख़ुशियों को पनीर खा के सेलेब्रेट कर लेते हैं। 

मिडिल क्लास आदमी उतना ही सच्चा होता है जितनी निरछल उसकी मुस्कान । 
देखिएगा कभी ।

और अंत में आप सब को मेरा प्रणाम 🙏 
लेख में कुछ अनुचित लगा हो तो क्षमा करिएगा ...

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गुरुवार, 15 मार्च 2018

क्या हम तैयार हैं अच्छे दिनों के लिए ?




ये बात तो तय है भारतीय एलीट वर्ग भी सरकारी सम्पति को अपना नहीं समझता! 

सरकारी चीजों का उपयोग कर फेंक देने की मानसिकता के कारण ही अब सरकार ने तेजस और शताब्दी ट्रेनों में से एलसीडी स्क्रीन हटाने का फैसला लिया है! 

ट्रेन की टॉयलेट से जंजीर बंधा लोटा तक चुराने वाले लोगों की मानसिकता कोई भला कैसे बदल सकता है? आप कितने भी 

#अच्छेदिन अच्छे दिन के नारे लगा लो नियत में टुच्चई हो तो बंटाधार होना तय है। 

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मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

व्यंग्य - "निकाय चुनाव,, मुस्कुराइएं फिर चुनाव हैं ।

✍गौरव सिंह गौतम (एन.डी.- न्यूज़)
कूंचे, गलियां और मोहल्ले फिर से गुलज़ार होने लगे हैं।
वो फिर से टोली बनाकर दरवाजे-दरवाजे जाकर अपनी हाजिरी दर्ज करवा रहे हैं।
पाँच साल पहले चोट खाए हुए लोग नज़रें उठाकर खोज रहें हैं कि शायद कोई जाना-पहचाना चेहरा मिल जाए तो उसे कुछ पलों के लिए गरियाकर अपने दिल की भड़ास निकाल लें।
पर उन्हें जाना-पहचाना कोई चेहरा नहीं दिखता बल्कि उन्हें दीखता है एक बिलकुल ताज़ा-तरीन चेहरा जो न तोड़नेवाले अनेकों वादे अपने संग लिए हुए नमस्कार मुद्रा में सामने खड़ा हुआ है।
पहली बार तो नज़र उठाकर उसे एक पल को देखा तो वो चेहरा अनजाना सा लगा था लेकिन फिर गौर से देखने पर उनकी सूरत कुछ जानी-पहचानी सी लगने लगती है।
अचानक याद आता है कि ये सूरत तो उनसे मिलती-जुलती है जिन्होंने पाँच साल पहले इसी प्रकार अपने दिव्य दर्शन दिए थे और उसके बाद ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग। पाँच सालों तक उन्होंने ‘उल्लू बनाओ अभियान’ को सुचारू रूप से चलाया। इस बार जब उन्हें इस अभियान की कमान नहीं सौंपी गई तो वे अपने भतीजे, भांजे या फिर कुछ दूर के रिश्तेदार के माध्यम से इस अभियान को सुचारू रूप से चालू रखने के लिए लोगों के बीच फिर से मौजूद हैं। ‘उल्लू बनाओ अभियान’ का वर्तमान प्रतिनिधि और उनके सगे-संबंधी काफी जुझारू हैं। ये उनका जुझारूपन ही जो इतने सिर-फुटव्वल के बाद भी प्रतिनिधित्व प्राप्त करने का जुगाड़ कर लिया । हम उन्हें सम्मानपूर्वक ‘जुगाड़ी’ शब्द से भी सुशोभित कर सकते हैं।
वो लुटे-पिटे जनों की चरण वंदना कर उनको देव होने की फिर से अनुभूति कराते हैं और इस अनुभूति के बदले में उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखते हैं।
जब उन्हें लगता है कि इस बार देव हठ करने पर उतारू हैं तो वो उनके समक्ष सुरा सहित विभिन्न मनभावन उपहार चढ़ावे के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
 इतना सब पाकर देव एकदम से खिल उठते हैं।
वो आशा और विश्वास के साथ मुस्कुराते हैं।
उनके संग कूंचों, गली-मोहल्लों और नाले-नालियों के इर्द-गिर्द सड़ांध मारता हुआ कूड़ा-करकट भी मुस्कुराता है। मच्छर और मक्खियाँ झूमते हुए नृत्य करते हैं। बीमारियाँ उम्मीद भरी निगाहों संग अंगड़ाई लेते हुए मुस्कुराती हैं।
आस-पास का वातावरण भी गंधाते हुए मुस्कुराता है।
तभी बिजली कड़कती है और आसमान से लखनवी अंदाज में आवाज गूँजती है 'मुस्कुराइए फिर से इलेक्शन हैं।" 
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