सोमवार, 25 मार्च 2019

गणेश शंकर विद्यार्थी : छद्म धर्म निरपेक्षता के प्रथम शिकार


गणेश शंकर विद्यार्थी : छद्म धर्म निरपेक्षता के प्रथम शिकार

हिन्दी के प्रशिद्ध पत्रकार, भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सिपाही एवं सुधारवादी नेता "गणेश शंकर विद्यार्थी" के शहीदी दिवस (25 मार्च) पर कोटि कोटि नमन. 
वे अत्यनत सेकुलर गांधीवादी नेता और पत्रकार थे. 
लेकिन कानपुर के हिन्दू मुस्लिम दंगे में उनका महान सेकुलर होना भी काम नहीं आया था. 
दंगाइयों ने उनको हिन्दू ही माना था.

गणेश शंकर विद्यार्थी जी का जन्म अपने नाना के घर, 26 अक्टूबर 1890 को प्रयागराज में हुआ था. इनके पिता मुंशी जयनारायण हथगाँव, जिला फतेहपुर (उ प्र) के निवासी थे. प्रयागराज के कायस्थ पाठशाला कालेज में पढ़ते समय उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर हो गया और वे प्रयागराज के हिंदी साप्ताहिक "कर्मयोगी" के संपादन में सहयोग देने लगे.

1911 में विद्यार्थी जी सरस्वती में पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में नियुक्त हुए.
कुछ समय 9 - नवंबर, 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक "प्रताप" के नाम से निकाला. पहले इन्होंने लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरु माना, किंतु राजनीति में गांधी जी के अवतरण के बाद वे गांधी जी के अनन्य भक्त हो गए.
2018 में दैनिक जागरण समाचार पत्र में प्रकाशित एक लेख 
कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने तथा अधिकारियों, जागीरदारों और पुलिस के अत्याचारों के विरुद्ध निर्भीक होकर "प्रताप" में लेख लिखने के करण वे 5 बार जेल भी गए. हिंसा और अहिंसा दोनों ही रास्तों पर चलने वाले स्वतंत्रता सेनानी, उनका सम्मान करते थे. वे महान समाज सुधारक होने के साथ बहुत ही धर्मपरायण और ईश्वरभक्त भी थे.

23 मार्च -1931 को "भगत सिंह"-"राजगुरु"-"सुखदेव" की फांसी देने से सारा देश उद्देलित था. उनकी फांसी के बिरोध में 25 मार्च को भारत बंद का आवाहन किया गया , लेकिन अंग्रेजों के चापलूसों ने उस बंद से दूर ही रहे. बल्कि अंग्रेजों को खुश करने के लिए उन्होंने बंद समर्थकों से झगडा भी किया.  कानपुर में भीषण दंगा ही हो गया था.

कानपुर में बाजार बंद करवा रहे लोगों पर, कुछ बंद बिरोधी मुसलमानों ने हमला कर, कानपुर में साम्प्रदायिक दंगा कर दिया. उस बुरे हालात में विद्यार्थी जी दंगे की आग बुझने के लिये घर से निकल पडे और हिन्दुओ / मुसलमानों को समझाने में लग गए. उनके साहसिक प्रयास से अनेकों हिन्दुओं और मुस्लिमो की जान बची.

अपने साथ कुछ मुसलमानों को लेकर, वे मुस्लिम बहुल इलाको में घूम रहे थे तभी कुछ अराजक मुस्लिम गुंडों ने उनपर हमला कर दिया. उनके साथ चल रहे मुसलमानों ने कहा - "ये गणेश शंकर विद्यार्थी हैं, इनकी बजह से हजारों मुस्लिम बच सके हैं". इस पर उन गुंडों ने कोई परवाह नहीं की और उनकी बल्लमो से पीटकर उनकी ह्त्या कर दी .

उनके साथ चल रहे लोग डरकर भाग गए. उनका शव अस्पताल में लाशों के मध्य ऐसी हालत में मिला कि - उसे पहचानना तक मुश्किल था. सम्प्रदियकता को मिटाने और हिन्दू मुस्लिम एकता के लिये, उन्होंने अपने जीवन वलिदान कर दिया.
लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि - आज कोई नेता " गणेश शंकर विद्यार्थी जी" का नाम लेने को भी तैयार भी नहीं है .

यह भी कहा जाता है कि - पहले उन्होंने हिन्दू बहुल इलाके में हिन्दुओं को समझाकर झगडा शांत किया और फिर वहां से कुछ मुस्लिम्स को साथ लेकर मुस्लिम बहुल इलाके में गए. जब मुस्लिम बहुल इलाके में लोगों को समझा रहे थे तो दंगाई यह कहकर उन पर टूट पड़े कि - है तो साला हिन्दू ही"

25 मार्च के ही दिन गणेश शंकर विद्यार्थी जी जैसे महान शख्सियत ने देश की अखण्डता को बनाये रखने के लिए अपना बलिदान दिया था ।
आज वो हमारे बीच नही हैं पर उनके बताये गए आदर्श व् सिद्धांत जरूर आज भी हमें मजबूती प्रदान करते हैं ।
वो अक्सर कहा करते थे की समाज का हर नागरिक एक पत्रकार है इसलिए उसे अपने नैतिक दायित्वों का निर्वाहन सदैव करना चाहिए ।
गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता को एक मिशन मानते थे पर आज के समय में पत्रकारिता मिशन नही बल्कि इसमें बाजार हावी हो गया है जिसके कारण इसकी मौजूदा प्रासंगिकता खतरे में है । 
हम आज डिजिटल इंडिया की सूचना क्रांति के दौर में जी रहे हैं जिसने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अमूल चूक परिवर्तन किया है ..
एक पत्रकार के ऊपर समाज की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है इसलिए इसे हमेशा सजग व् सचेत रहना चाहिए 
ऐसे महान व् कर्मठ व्यक्तित्व को
कोटि कोटि नमन 🙏🌹🙏

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गुरुवार, 1 नवंबर 2018

कौन हैं ये बुजुर्ग जो रेलवे स्टेशन पर दिखते है फिल्मी अंदाज में !


कौन हैं ये बुजुर्ग जो रेलवे स्टेशन पर दिखते है फिल्मी अंदाज में !

इस अजीब नज़ारे को देखकर हर कोई हैरत में पड़ जाता है जब बड़ी बड़ी मूंछो वाला एक 80 वर्षीय बुजुर्ग एक रेलवे स्टेशन पर कुर्सी डालकर बैठता है और साथ में होते हैं कई गनर और सैकड़ो लोगों का हुजूम .आइये जानते क्या है पूरा मामला .

दरसल ये बुजुर्ग और कोई नही कुंडा से निर्दलीय विधायक राजा भैया के पूज्नीय पिता जी भदरी नरेश श्री महाराजा उदय प्रताप सिंह जी है. जो की शुरू से ही एक कट्टर हिन्दू छवि वाले व्यक्ति रहे हैं और इस उम्र में भी वो सनातन धर्म के लिए संघर्ष करते हुए दिखाई देते हैं…
दरसल महाराज उदय सिंह जी कुंडा रेलवे स्टेशन पर कई सालों से वो पुण्य कार्य कर रहे हैं जो कार्य सरकारें व बड़ी बड़ी सामाजिक संस्थाएं भी नही कर सकती . 
महाराजा उदयप्रताप जी कई वर्षों से प्रतिदिन कुंडा स्टेशन पर रेलवे यात्रियों को मुफ्त में { पानी – लस्सी – छाछ – नाश्ता- खाना} आदि का भंडारा करते हैं..

जिसे देखकर सभी लोग हैरत में पड़ जाते हैं कि कैसे कोई इंसान इतना बड़ा दान कर सकता है वो भी लगातार बर्षो तक सब जानते है कि अब राजतन्त्र नही रहा जनतन्त्र आने पर राजाओ की लगभग सारी सम्पत्ति सरकार ने लेली थी .
फिर भी आज वही राजाओ वाला रुतबा और त्याग आज के समय मे रखना बहुत ही बड़ी बात है .
इस पर महाराज उदय प्रताप सिंह जी का बस इतना ही कहना होता है कि मानव सेवा ही सनातन धर्म है . 
मैं वही कर रहा हूँ

शायद इसी त्याग और भाव के लिए लोग बड़े महाराज को पूजते हैं.
और इसलिये समाज उन्हें और राजा भैया को गरीबों का मसीहा कहता हैं.. 
क्योंकि यही छवि आज राजा भैया में भी दिखती है .
और राजा भैया द्वारा किये गए 800 से ज्यादा गरीव कन्यायों के विवाह- निकाह इस बात का जीता जागता उदाहरण है….
हमे गर्व है कि भारत मे अभी भी ऐसे महान लोग हैं जो सनातनी परम्परा को जीवित बनाये हुए हैं.

आत्म गौरव न्यूज़ .com की ओर से महराज जी को बहुत बहुत साधुवाद 🙏

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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

बुंदेलखंड का रॉबिनहुड या डकैत ...


                  बुंदेलखंड का रॉबिनहुड या डकैत

✍ गौरव सिंह मुख्य सम्पादक

बुंदेलखंड ( चित्रकूट ) - उत्तर प्रदेश के जनपद चित्रकूट में रैपुरा क्षेत्र के देवकली गांव में राम प्यारे पटेल का बड़ा बेटा शिव कुमार पटेल उर्फ ददुआ ने 32 साल तक बागी जीवन व्यतीत किया। ददुआ के बारे में यह एक बात और रोचक है कि वह 32 साल के डकैत करियर के दौरान कभी पुलिस के हाथ नहीं लगा। वह पहला डकैत था जो 32 साल तक आतंक करता रहा, लेकिन पुलिस उस तक नहीं पहुंच पाई थी। 

बताया जाता है कि पिता की मौत का बदला लेने के लिए ही ददुआ ने हथियार उठाया था और आठ लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।

राजनीतिक गलियारों में बुन्देलखण्ड की पूरी डोर चाहे वो विधानसभा हो या लोकसभा , नगर पंचायत हो या नगर पालिका ,जिला पंचायत अध्यक्ष हो या ग्राम प्रधान हो सभी का निर्णय ददुआ की अनुमति के बगैर नहीं होता था। एक पक्ष जो आतंक के इस पर्याय को औरों से अलग करता है, वो ये की पूरे क्षेत्र में एक बात लगभग हर मुह से कही जाती है कि 'ददुआ कभी गरीबों पर जुल्म नहीं करता था, बल्कि उनकी ज्यादा से ज्यादा मदद ही करता था, जिसके कारण उसे 'भारत के रॉबिनहुड' की भी संज्ञा दी जाती थी।

1992 में इलाहाबाद, बांदा और फतेहपुर के संयुक्त पुलिस अभियान में दस्यु सरगना फतेहपुर में धाता क्षेत्र के घटईपुर और नरसिंहपुर कबरहा गांव के बीच गन्ने के खेतों में फंस गया था। उस समय ददुआ के साथ करीब 72 डकैत साथी मौजूद थे। इस घेराबंदी में पुलिस के 500 जवान नियुक्त थे। ददुआ के विधायक पुत्र वीर सिंह ने बताया कि अपने को पूरी तरह से घिरा पाकर ददुआ ने संकल्प लिया था कि यदि मैं बच जाता हूं तो पंचमुखी हनुमान मन्दिर की स्थापना करूंगा और ददुआ बाल-बाल बच गया। इसके बाद 1996 में ददुआ ने उसी स्थान पर मन्दिर की स्थापना की थी। 2004 में पंचमुखी हनुमान जी की मूर्ति बिठाकर प्राण प्रतिष्ठा की थी।

धाता फतेहपुर में बना दस्यु सम्राट ददुआ का मंदिर

दस्यु सरगना के बढते आतंक से परेशान उत्तर प्रदेश पुलिस ने उसको जिंदा अथवा मुर्दा पकडने के एवज में सात लाख रुपये का ईनाम घोषित किया था। घोषणा के समय केवल स्केच द्वारा बनाया गया काल्पनिक चित्र ही पत्रकारों को दिया गया था। इसके बाद फरवरी 2007 में चित्रकूट स्थित घनघोर जगमल के जंगल में एसटीएफ की मुठभेड में दस्यु ददुआ दस डकैतों के साथ मारा गया। दस्यु ददुआ के मारे जाने के 24 घंटे के अंदर उसके शिष्य डकैत अंबिका पटेल उर्फ ठोकिया ने उन छह एसटीएफ जवानों को घात लगाकर मार दिया जो ददुआ को मारे जाने वाले पुलिस दल में शामिल थे।

आस -पास के गांवों में जहा एक वर्ग उसे मसीहा मानता है वही एक वर्ग उसे डकैत की संज्ञा देता है इसलिए ये निष्कर्ष निकाल पाना बेहद मुश्किल है कि वास्तव में उसे रॉबिनहुड कहा जाना चाहिए या फिर एक डकैत....

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सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

आज विशेष जन्मतिथि Dr. Abdul Kalam


आज विशेष जन्मतिथि 


अबुल पकिर जैनुलाअबदीन अब्दुल #कलाम अथवा 
ए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलाम  (15 अक्टूबर 1931 - 27 जुलाई 2015) जिन्हें मिसाइल मैन और जनता के राष्ट्रपति के नाम से जाना जाता है, भारतीय गणतंत्र के ग्यारहवें निर्वाचित राष्ट्रपति थे।वे भारत के पूर्व राष्ट्रपति,
जानेमाने वैज्ञानिक और अभियंता (इंजीनियर) के रूप में विख्यात थे।
इन्होंने मुख्य रूप से एक वैज्ञानिक और विज्ञान के व्यवस्थापक के रूप में चार दशकों तक रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) संभाला व भारत के नागरिक अंतरिक्ष कार्यक्रम और सैन्य मिसाइल के विकास के प्रयासों में भी शामिल रहे। इन्हें बैलेस्टिक मिसाइल और प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी के विकास के कार्यों के लिए भारत में मिसाइल मैन के रूप में जाना जाने लगा।

इन्होंने 1974 में भारत द्वारा पहले मूल परमाणु परीक्षण के बाद से दूसरी बार 1998 में भारत के पोखरान-द्वितीय परमाणु परीक्षण में एक निर्णायक, संगठनात्मक, तकनीकी और राजनैतिक भूमिका निभाई।

कलाम सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी व विपक्षी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दोनों के समर्थन के साथ 2002 में भारत के राष्ट्रपति चुने गए।पांच वर्ष की अवधि की सेवा के बाद, वह शिक्षा, लेखन और सार्वजनिक सेवा के अपने नागरिक जीवन में लौट आए। इन्होंने भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त किये।

प्रारंभिक जीवन


15 अक्टूबर 1931 को धनुषकोडी गाँव (रामेश्वरम, तमिलनाडु) में एक मध्यमवर्ग मुस्लिम परिवार में इनका जन्म हुआ।इनके पिता जैनुलाब्दीन न तो ज़्यादा पढ़े-लिखे थे, न ही पैसे वाले थे।इनके पिता मछुआरों को नाव किराये पर दिया करते थे। अब्दुल कलाम संयुक्त परिवार में रहते थे। परिवार की सदस्य संख्या का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह स्वयं पाँच भाई एवं पाँच बहन थे और घर में तीन परिवार रहा करते थे।अब्दुल कलाम के जीवन पर इनके पिता का बहुत प्रभाव रहा। वे भले ही पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनकी लगन और उनके दिए संस्कार अब्दुल कलाम के बहुत काम आए।पाँच वर्ष की अवस्था में रामेश्वरम के पंचायत प्राथमिक विद्यालय में उनका दीक्षा-संस्कार हुआ था। उनके शिक्षक इयादुराई सोलोमन ने उनसे कहा था कि जीवन मे सफलता तथा अनुकूल परिणाम प्राप्त करने के लिए तीव्र इच्छा, आस्था, अपेक्षा इन तीन शक्तियो को भलीभाँति समझ लेना और उन पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहिए।

अब्दुल कलाम ने अपनी आरंभिक शिक्षा जारी रखने के लिए अख़बार वितरित करने का कार्य भी किया था।कलाम ने 1950में मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलजी से अंतरिक्ष विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। स्नातक होने के बाद उन्होंने हावरक्राफ्ट परियोजना पर काम करने के लिये भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में प्रवेश किया। 1962 में वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन में आये जहाँ उन्होंने सफलतापूर्वक कई उपग्रह प्रक्षेपण परियोजनाओं में अपनी भूमिका निभाई। परियोजना निदेशक के रूप में भारत के पहले स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यानएसएलवी 3 के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिससे जुलाई 1982 में रोहिणी उपग्रह सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया था।

पुरस्कार एवं सम्मान


कलाम के 79 वें जन्मदिन को संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व विद्यार्थी दिवस के रूप में मनाया गया था। इसके आलावा उन्हें लगभग चालीस विश्वविद्यालयों द्वारा मानद डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्रदान की गयी थीं भारत सरकार द्वारा उन्हें 1981 में पद्म भूषण और 1990 में पद्म विभूषण का सम्मान प्रदान किया गया जो उनके द्वारा इसरो और डी आर डी ओ में कार्यों के दौरान वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिये तथा भारत सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार के रूप में कार्य हेतु प्रदान किया गया था।

1997 में कलाम साहब को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया जो उनके वैज्ञानिक अनुसंधानों और भारत में तकनीकी के विकास में अभूतपूर्व योगदान हेतु दिया गया था।

वर्ष 2005 में स्विट्ज़रलैंड की सरकार ने कलाम के स्विट्ज़रलैंड आगमन के उपलक्ष्य में 26 मई को विज्ञान दिवस घोषित किया।नेशनल स्पेस सोशायटी ने वर्ष 2013 में उन्हें अंतरिक्ष विज्ञान सम्बंधित परियोजनाओं के कुशल संचलन और प्रबंधन के लिये वॉन ब्राउन अवार्ड से पुरस्कृत किया।

निधन


27 जुलाई 2015 की शाम अब्दुल कलाम भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलोंगमें 'रहने योग्य ग्रह' पर एक व्याख्यान दे रहे थे जब उन्हें जोरदार कार्डियक अरेस्ट (दिल का दौरा) हुआ और ये बेहोश हो कर गिर पड़े।लगभग 6:30 बजे गंभीर हालत में इन्हें बेथानी अस्पताल में आईसीयू में ले जाया गया और दो घंटे के बाद इनकी मृत्यु की पुष्टि कर दी गई।अस्पताल के सीईओ जॉन साइलो ने बताया कि जब कलाम को अस्पताल लाया गया तब उनकी नब्ज और ब्लड प्रेशर साथ छोड़ चुके थे। अपने निधन से लगभग 9 घण्टे पहले ही उन्होंने ट्वीट करके बताया था कि वह शिलोंग आईआईएम में लेक्चर के लिए जा रहे हैं।

कलाम अक्टूबर 2015 में 84 साल के होने वाले थे।मेघालय के राज्यपाल वी॰ षडमुखनाथन; अब्दुल कलाम के हॉस्पिटल में प्रवेश की खबर सुनते ही सीधे अस्पताल में पहुँच गए। बाद में षडमुखनाथन ने बताया कि कलाम को बचाने की चिकित्सा दल की कोशिशों के बाद भी शाम 7:45 पर उनका निधन हो गया।

सादर नमन🙏🙏

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मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

आज विशेष जन्मतिथि आज देश गांधी जयंती के साथ भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयंती मना रहा है।



आज विशेष जन्मतिथि 
आज देश गांधी जयंती के साथ भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयंती मना रहा है। 

गौरव सिंह गौतम [मुख्य संपादक आत्मगौरव न्यूज़. कॉम]

लाल बहादुर शास्त्री



सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले शास्त्री जी एक शांत चित्त व्यक्तित्व भी थे। शास्त्री जी का जन्म उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में 2 अक्टूबर 1904 को मुंशी लाल बहादुर शास्त्री के रूप में हुआ था। वह अपने घर में सबसे छोटे थे तो उन्हें प्यार से नन्हें बुलाया जाता था। उनकी माता का नाम राम दुलारी था और पिता का नाम मुंशी प्रसाद श्रीवास्तव था। शास्त्री जी की पत्नी का नाम ललिता देवी था।

मुश्किल परिस्थितियों हासिल की शिक्षा-बचपन में ही पिता की मौत होने के कारण नन्हें अपनी मां के साथ नाना के यहां मिर्जापुर चले गए। यहीं पर ही उनकी प्राथमिक शिक्षा हुई। उन्होंने विषम परिस्थितियों में शिक्षा हासिल की। कहा जाता है कि वह नदी तैरकर रोज स्कूल जाया करते थे। क्योंकि जब बहुत कम गांवों में ही स्कूल होते थे। लाल बहादुर शास्त्री जब काशी विद्यापीठ से संस्कृत की पढ़ाई करके निकले तो उन्हें शास्त्री की उपाधि दी गई। इसके बाद उन्होंने अपने नाम के आगे शास्त्री लगाने लगे।


शास्त्री जी का विवाह 1928 में ललिता शास्त्री के साथ हुआ। जिनसे दो बेटियां और चार बेटे हुए। एक बेटे का नाम अनिल शास्त्री है जो कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं। देश के अन्य नेताओं की भांति शास्त्री जी में भी देश को आजाद कराने की ललक थी लिहाजा वह 1920 में ही आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। उन्होंने 1921 के गांधी से असहयोग आंदोलन से लेकर कर 1942 तक अंग्रेजों भारत छोड़ों आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। इस दौरान कई बार उन्हें गिरफ्तार भी किया गया और पुलिसिया कार्रवाई का शिकार बने।

दिया 'जय जवान जय किसान' का नारा
शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 1965 में भारत पाकिस्तान का युद्ध हुआ जिसमें शास्त्री जी ने विषम परिस्थितियों में देश को संभाले रखा। सेना के जवानों और किसानों महत्व बताने के लिए उन्होंने 'जय जवान जय किसान' का नारा भी दिया। 11 जनवरी 1966 को शास्त्री की मौत ताशकंद समझौत के दौरान रहस्यमय तरीके से हो गई।


महात्मा गाँधी


गुजरात में 2 अक्तूबर 1869 को जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी ने सत्य और अहिंसा को अपना ऐसा मारक और अचूक हथियार बनाया जिसके आगे दुनिया के सबसे ताकतवर ब्रिटिश साम्राज्य को भी घुटने टेकने पड़े। आज उनकी 149वीं जयंती के मौके पर आइये हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि पोरबंदर के मोहनदास को उनके जीवन के किन महत्वपूर्ण पड़ावों और घटनाओं ने महात्मा बना दिया।


मोहन दास के जीवन पर पिता करमचंद गांधी से ज्यादा उनकी माता पुतली बाई के धार्मिक संस्कारों का प्रभाव पड़ा। बचपन में सत्य हरिश्चंद्र और श्रवण कुमार की कथाओं ने उनके जीवन पर इतना गहरा असर डाला कि उन्होंने इन्हीं आदर्शों को अपना मार्ग बना लिया। जिस पर चलते हुए बापू देश के राष्ट्रपिता बन गए। 


वर्ष 1883 में कस्तूरबा से उनका विवाह के दो साल बाद उनके पिता का देहांत हो गया। राजकोट के अल्फ्रेड हाई स्कूल और भावनगर के शामलदास स्कूल में शुरुआती पढ़ाई पूरी कर मोहन दास 1888 में बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन पहुंच गए। स्वदेश लौटकर बंबई में वकालत शुरू की, लेकिन खास सफलता नहीं मिलने पर 1893 में वकालत करने दक्षिण अफ्रीका चले गए। यहां गांधी को अंग्रेजों के भारतीयों के साथ जारी भेदभाव का अनुभव हुआ और उन्हें इसके खिलाफ संघर्ष को प्रेरित किया। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उनकी कामयाबी ने गांधी को भारत में भी मशहूर कर दिया और वर्ष 1917 में उन्होंने चंपारण के नील किसानों पर अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। इसके बाद तो गांधी जी के जीवन का एकमात्र लक्ष्य ही ब्रितानी हुकूमत को देश के बाहर खदेड़ना बन गया। आखिर 15 अगस्त 1947 को देश को आजादी मिली और पूरे देश ने उन्हें अपना ‘राष्ट्रपिता’ माना।

सादर नमन 🙏🙏
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मंगलवार, 25 सितंबर 2018

आज विशेष जन्मतिथि पं० दीनदयाल_उपाध्याय

 #आज_विशेष_जन्मतिथि 

#दीनदयाल_उपाध्याय 
( #जन्म: 25 7, 1916, मथुरा, उत्तर प्रदेश; #मृत्यु: 11 फ़रवरी 1968) 

भारतीय जनसंघ के नेता थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक ऐसे नेता थे जिन्होंने जीवनपर्यंन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को महत्त्व दिया। वे भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। 
पंडित दीनदयाल उपाध्याय मज़हब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का ज़िम्मेदार मानते थे। वह हिन्दू राष्ट्रवादी तो थे ही, इसके साथ ही साथ भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे। दीनदयाल की मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं। दीनदयाल उपाध्याय की पुस्तक एकात्म मानववाद (इंटीगरल ह्यूमेनिज्म) है जिसमें साम्यवाद और पूंजीवाद, दोनों की समालोचना की गई है। एकात्म मानववाद में मानव जाति की मूलभूत आवश्यकताओं और सृजित क़ानूनों के अनुरुप राजनीतिक कार्रवाई हेतु एक वैकल्पिक सन्दर्भ दिया गया है।

जीवन_परिचय 

दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को ब्रज के पवित्र क्षेत्र मथुरा ज़िले के छोटे से गाँव 'नगला चंद्रभान' में हुआ था। दीनदयाल के पिता का नाम 'भगवती प्रसाद उपाध्याय' था। इनकी माता का नाम 'रामप्यारी' था जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर बीतता था। उनके पिता कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे। थोड़े समय बाद ही दीनदयाल के भाई ने जन्म लिया जिसका नाम 'शिवदयाल' रखा गया। पिता भगवती प्रसाद ने अपनी पत्नी व बच्चों को मायके भेज दिया। उस समय दीनदयाल के नाना चुन्नीलाल शुक्ल धनकिया में स्टेशन मास्टर थे। मामा का परिवार बहुत बड़ा था। दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ खाते-खेलते बड़े हुए। वे दोनों ही रामप्यारी और दोनों बच्चों का ख़ास ध्यान रखते थे। 3 वर्ष की मासूम उम्र में दीनदयाल पिता के प्यार से वंचित हो गये। पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग हो गया। 8 अगस्त सन् 1924 को रामप्यारी बच्चों को अकेला छोड़ ईश्वर को प्यारी हो गयीं। 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। सन् 1934 में बीमारी के कारण दीनदयाल के भाई का देहान्त हो गया।

शिक्षा

 गंगापुर में दीनदयाल के मामा 'राधारमण' रहते थे। उनका परिवार उनके साथ ही था। गाँव में पढ़ाई का अच्छा प्रबन्ध नहीं था, इसलिए नाना चुन्नीलाल ने दीनदयाल और शिबु को पढ़ाई के लिए मामा के पास गंगापुर भेज दिया। गंगापुर में दीना की प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ हुआ। मामा राधारमण की भी आय कम और खर्चा अधिक था। उनके अपने बच्चों का खर्च और साथ में दीना और शिबु का रहन-सहन और पढ़ाई का खर्च करनी पड़ती थी।


स्वर्ण_पदक 

सन 1937 में इण्टरमीडिएट की परीक्षा दी। इस परीक्षा में भी दीनदयाल जी ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर एक कीर्तिमान स्थापित किया। बिड़ला कॉलेज में इससे पूर्व किसी भी छात्र के इतने अंक नहीं आए थे। जब इस बात की सूचना घनश्याम दास बिड़ला तक पहुँची तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने दीनदयाल जी को एक स्वर्ण पदक प्रदान किया। उन्होंने दीनदयाल जी को अपनी संस्था में एक नौकरी देने की बात कही। दीनदयाल जी ने विनम्रता के साथ धन्यवाद देते हुए आगे पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। बिड़ला जी इस उत्तर से बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, 'आगे पढ़ना चाहते हो, बड़ी अच्छी बात है। हमारे यहाँ तुम्हारे लिए एक नौकरी हमेशा ख़ाली रहेगी। जब चाहो आ सकते हो।' धन्यवाद देकर दीनदयाल जी चले गए। बिड़ला जी ने उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की।


सर्वोच्च_अध्यक्ष 

पंडित दीनदयाल जी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। आख़िर में जनसंघ के इतिहास में चिरस्मरणीय दिन आ गया जब पार्टी के इस अत्यधिक सरल तथा विनीत नेता को सन् 1968 में पार्टी के सर्वोच्च अध्यक्ष पद पर बिठाया गया। दीनदयाल जी इस महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी को संभालने के पश्चात् जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण भारत गए। देश सेवा पंडित जी घर गृहस्थी की तुलना में देश की सेवा को अधिक श्रेष्ठ मानते थे। दीनदयाल देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने कहा था कि 'हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल ज़मीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा। पंडित जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को पूरी रचनात्मकता और विश्लेषणात्मक गहराई से जिया है। पत्रकारिता जीवन के दौरान उनके लिखे शब्द आज भी उपयोगी हैं। प्रारम्भ में समसामयिक विषयों पर वह 'पॉलिटिकल डायरी‘ नामक स्तम्भ लिखा करते थे। पंडित जी ने राजनीतिक लेखन को भी दीर्घकालिक विषयों से जोडकर रचना कार्य को सदा के लिए उपयोगी बनाया है।

मृत्यु

विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी, पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की हत्या सिर्फ़ 52 वर्ष की आयु में 11 फ़रवरी 1968 को मुग़लसराय के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय हुई थी। उनका पार्थिव शरीर मुग़लसराय स्टेशन के वार्ड में पड़ा पाया गया। भारतीय राजनीतिक क्षितिज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिया।

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बुधवार, 5 सितंबर 2018

आज विशेष शिक्षक दिवस

आज विशेष जन्मतिथि
डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन
शिक्षक दिवस

✍ गौरव सिंह गौतम 

भारत के दूसरे राष्ट्रपति और महान दार्शनिक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस को भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। 

दुनिया भर में टीचर्स डे मनाने की अलग-अलग तिथियां निर्धारित हैं। यूनेस्को की ओर से शिक्षक दिवस मनाने के लिए 5 अक्टूबर की तिथि निर्धारित है। 

इसलिए,दुनिया के 100 से ज्यादा देशों में 5 अक्टूबर को टीचर्स डे मनाया जाता है। भारत में 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाने के पीछे एक कहानी है। 

आइए, आज हम आपको टीचर्स से जुड़े इस किस्से के बारे में बताते हैं।

कौन थे राधाकृष्णन 



डा. सर्वपल्‍ली राधा कृष्णन भारत के दूसरे राष्ट्रपति और एक शिक्षक थे। 
वह पूरी दुनिया को ही स्कूल मानते थे। 
उनका जन्म 5 सितंबर 1888 को तिरुतनी नाम के गांव में हुआ था। सर्वपल्ली राधाकृष्णन हमारे देश के दूसरे राष्ट्रपति थे। 
राजनीति में आने से पहले उन्होंने अपने जीवन के 40 साल अध्यापन को दिये थे। उनका कहना था कि जहां कहीं से भी कुछ सीखने को मिले उसे अपने जीवन में उतार लेना चाहिए। 
वह पढ़ाने से ज्यादा छात्रों के बौद्धिक विकास पर जोर देने की बात करते थे। 
वह पढ़ाई के दौरान काफी खुशनुमा माहौल बनाकर रखते थे। 
1954 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।

राधाकृष्णन के जन्मदिन को ही क्यों मनाते हैं शिक्षक दिवस ?



डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के दूसरे राष्ट्रपति होने के अलावा एक विख्यात दार्शनिक, महान शिक्षाविद तथा शिक्षक थे। 
उनके छात्र उनसे बहुत स्नेह करते थे। एक बार उनके कुछ शिष्यों तथा दोस्तों ने उनका जन्मदिन मनाने का निश्चय किया। 
इस बारे में वे जब उनसे अनुमति लेने गए तो उन्होंने कहा कि मेरा जन्मदिन अलग से मनाए जाने की बजाय अगर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाएगा तो मुझे गर्व महसूस होगा। 
इसी के बाद से पूरे देश में 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। 
देश में पहली बार 5 सितंबर 1962 को शिक्षक दिवस मनाया गया था।

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बुधवार, 15 अगस्त 2018

#स्वतंत्रता_दिवस


#स्वतंत्रता_दिवस 

ग़ौरव सिंह गौतम ( प्रधान संपादक )

बात कई वर्ष पूर्व की है ,जब मैं विद्या मंदिर विद्यालय में पढ़ रहा था । 
उसी समय प्लास्टिक के तिरंगों का प्रचलन शुरू हुआ था । 
उस दिन स्वतंत्रता दिवस था और मैं बहुत खुश था, क्योंकि ऐसे अवसर पर हमें स्पर्धाओं में भाग लेने का मौका मिलता था।
मैं भी प्रातः विद्यालय पहुँच  गया और वहाँ पर अधिकांश छात्रों के हाथ में प्लास्टिक का तिरंगा लिए देख मन में थोड़ा सा ग्लानि हुई कि आज के दिन मेरे हाथ में भी तिरंगा होना चाहिए था परन्तु तबतक मैं प्लास्टिक के तिरंगे से अनजान था| 
हाँ, बचपन में राकेश आचार्य जी के निर्देश पर कागज पर तिरंगा बनाकर खुद से रंग भरकर उसमें चक्र बना देते थे और वही हमारा तिरंगा हुआ करता था। 
ध्वजारोहण के पश्चात् राष्ट्रगान हुआ,विभिन्न कार्यक्रम हुए और मोदक(लड्डू) वितरण हुआ।
कुछ लोगों को छोड़ बाकी सभी छात्र-छात्राएँ जा चुके थे , 
तो मैंने देखा कि 10-15 तिरंगे ज़मीन पे पड़े भारत माता की मिट्टी को प्रणाम कर रहे थे जिन्हे थोड़ी देर पहले हाथ में लेकर भारत माता की जय के उद्घोष किये जा रहे थे । 
मैंने उन्हें उठाकर उनमे से कुछ को विद्यालय के छप्पर में लगाया और 2-3 घर ले गया । 
ऐसे ही न जाने कितने विद्यालयों में तिरंगे बिखरे पड़े होगें, लोग खरीद तो लेते हैं पर उन्हें कैसे रखना है इस बात पर ध्यान क्यों नहीं देते।
कबीरदास जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी थीं - 
केका समुझाई राम जगत होइ गा अंधा
दुइ चार होंय, उन्हई समझावउँ,
अबहीं भुलाने पेट क धंधा ... 
 हवा की गति थोड़ा तीव्र हुई ,
मैंने जाने से पहले एक बार पीछे मुडकर देखा,सभी तिरंगे हवा के झोंकों से खेल रहे थे।
मन में थोड़ी संतुष्टि की अनुभूति हुई और मैं वापस घर की ओर चल पड़ा।
मेरे हाथ में भी तिरंगा लहरा रहा था और वो भी अपनी प्रसन्नता दिखा रहा था।

आप सभी आत्म गौरव न्यूज़.कॉम के सुधी पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।

वंदे_मातरम् 🚩🚩जय हिंद 🇮🇳🇮🇳

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शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

आज विशेष - लघुकथा डॉ० अब्दुल कलाम





आज विशेष - लघुकथा डॉ० अब्दुल कलाम

✍ गौरव सिंह गौतम (प्रधान संपादक)

अबुल पाकिर जैनुलाअबदीन अब्दुल कलाम 
अथवा ए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलाम 
( #जन्म 15 अक्टूबर 1931 - #मृत्यु 27 जुलाई 2015) जिन्हें मिसाइल मैन और जनता के राष्ट्रपति के नाम से जाना जाता है, 
भारतीय गणतंत्र के ग्यारहवें निर्वाचित राष्ट्रपति थे।वे भारत के पूर्व राष्ट्रपति, जानेमाने वैज्ञानिक और अभियंता (इंजीनियर) के रूप में विख्यात थे।

महान वैज्ञानिक अब्दुल कलाम जी का जीवन परिचय 
  
अब्दुल कलाम संयुक्त परिवार में रहते थे। 
परिवार की सदस्य संख्या का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह स्वयं पाँच भाई एवं पाँच बहन थे और घर में तीन परिवार रहा करते थे। 
इनका कहना था कि वह घर में तीन झूले (जिसमें बच्चों को रखा और सुलाया जाता है) देखने के अभ्यस्त थे। 
इनकी दादी माँ एवं माँ द्वारा ही पूरे परिवार की परवरिश की जाती थी। 
घर के वातावरण में प्रसन्नता और वेदना दोनों का वास था। इनके घर में कितने लोग थे और इनकी माँ बहुत लोगों का खाना बनाती थीं क्योंकि घर में तीन भरे-पूरे परिवारों के साथ-साथ बाहर के लोग भी हमारे साथ खाना खाते थे। 
इनके घर में खुशियाँ भी थीं, तो मुश्किलें भी थी। 
अब्दुल कलाम के जीवन पर इनके पिता का बहुत प्रभाव रहा। वे भले ही पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनकी लगन और उनके दिए संस्कार अब्दुल कलाम के बहुत काम आए। 
अब्दुल कलाम के पिता चारों वक़्त की नमाज़ पढ़ते थे और जीवन में एक सच्चे इंसान थे। 

जीवन की एक घटना

अब्दुल कलाम के जीवन की एक घटना है, 
कि यह भाई-बहनों के साथ खाना खा रहे थे। 
इनके यहाँ चावल खूब होता था, 
इसलिए खाने में वही दिया जाता था, रोटियाँ कम मिलती थीं। जब इनकी माँ ने इनको रोटियाँ ज़्यादा दे दीं, 
तो इनके भाई ने एक बड़े सच का खुलासा किया। 
इनके भाई ने अलग ले जाकर इनसे कहा कि माँ के लिए एक-भी रोटी नहीं बची और तुम्हें उन्होंने ज़्यादा रोटियाँ दे दीं। 
वह बहुत कठिन समय था और उनके भाई चाहते थे कि अब्दुल कलाम ज़िम्मेदारी का व्यवहार करें।
तब यह अपने जज़्बातों पर काबू नहीं पा सके और दौड़कर माँ के गले से जा लगे। 
उन दिनों कलाम कक्षा पाँच के विद्यार्थी थे। 
इन्हें परिवार में सबसे अधिक स्नेह प्राप्त हुआ क्योंकि यह परिवार में सबसे छोटे थे। 
तब घरों में विद्युत नहीं थी और केरोसिन तेल के दीपक जला करते थे, जिनका समय रात्रि 7 से 9 तक नियत था। 
लेकिन यह अपनी माता के अतिरिक्त स्नेह के कारण पढ़ाई करने हेतु रात के 11 बजे तक दीपक का उपयोग करते थे। अब्दुल कलाम के जीवन में इनकी माता का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इनकी माता ने 92 वर्ष की उम्र पाई। 
वह प्रेम, दया और स्नेह की प्रतिमूर्ति थीं। उनका स्वभाव बेहद शालीन था। 
इनकी माता पाँचों समय की नमाज़ अदा करती थीं। 
जब इन्हें नमाज़ करते हुए अब्दुल कलाम देखते थे तो इन्हें रूहानी सुकून और प्रेरणा प्राप्त होती थी।

जिस घर अब्दुल कलाम का जन्म हुआ, 
वह आज भी रामेश्वरम में मस्जिद मार्ग पर स्थित है। 
इसके साथ ही इनके भाई की कलाकृतियों की दुकान भी संलग्न है। 
यहाँ पर्यटक इसी कारण खिंचे चले आते हैं, क्योंकि अब्दुल कलाम का आवास स्थित है। 
1964 में 33 वर्ष की उम्र में डॉक्टर अब्दुल कलाम ने जल की भयानक विनाशलीला देखी और जल की शक्ति का वास्तविक अनुमान लगाया। 
चक्रवाती तूफ़ान में पायबन पुल और यात्रियों से भरी एक रेलगाड़ी के साथ-साथ अब्दुल कलाम का पुश्तैनी गाँव धनुषकोड़ी भी बह गया था। 
जब यह मात्र 19 वर्ष के थे, तब द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका को भी महसूस किया। 
युद्ध का दवानल रामेश्वरम के द्वार तक पहुँचा था। 
इन परिस्थितियों में भोजन सहित सभी आवश्यक वस्तुओं का अभाव हो गया था।

मृत्यु

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, शिलांग में व्याख्यान देते समय गंभीर दिल का दौरा पड़ने के कारण 27 जुलाई 2015 को डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम इस संसार को अलविदा कह गये।

उन्होंने अपने निधन से पूर्व 9 घंटे पहले टवीट करके कहा था की वे शिलांग आई आई ऍम में लेक्चर देने के लिए जा रहे हैं..

उनका कहना था 


“….मैं यह बहुत गर्वान्वित पूर्वक तो नहीं कह सकता कि मेरा जीवन किसी के लिए आदर्श बन सकता है, लेकिन जिस तरह मेरे नियति ने आकार ग्रहण किया उससे किसी ऐसे गरीब बच्चे को सात्वना अवश्य मिलेगी जो किसी छोटी से जगह पर सुविधाहीन सामाजिक दशाओं में रह रहा हो|
शायद यह ऐसे बच्चों को उनके पिछड़ेपन और निराशा की भावनाओं से विमुक्त होने में अवश्य सहायता करे|”

ए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलाम जी का अंतिम संस्कार
30 जुलाई 2015 को अब्दुल कलाम को पुरे सम्मान के साथ रामेश्वरम के पी करुम्बू ग्राउंड में दफना दिया गया..

नमन🙏🙏🙏
वन्दे_मातरम
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