सोमवार, 25 मार्च 2019

गणेश शंकर विद्यार्थी : छद्म धर्म निरपेक्षता के प्रथम शिकार


गणेश शंकर विद्यार्थी : छद्म धर्म निरपेक्षता के प्रथम शिकार

हिन्दी के प्रशिद्ध पत्रकार, भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सिपाही एवं सुधारवादी नेता "गणेश शंकर विद्यार्थी" के शहीदी दिवस (25 मार्च) पर कोटि कोटि नमन. 
वे अत्यनत सेकुलर गांधीवादी नेता और पत्रकार थे. 
लेकिन कानपुर के हिन्दू मुस्लिम दंगे में उनका महान सेकुलर होना भी काम नहीं आया था. 
दंगाइयों ने उनको हिन्दू ही माना था.

गणेश शंकर विद्यार्थी जी का जन्म अपने नाना के घर, 26 अक्टूबर 1890 को प्रयागराज में हुआ था. इनके पिता मुंशी जयनारायण हथगाँव, जिला फतेहपुर (उ प्र) के निवासी थे. प्रयागराज के कायस्थ पाठशाला कालेज में पढ़ते समय उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर हो गया और वे प्रयागराज के हिंदी साप्ताहिक "कर्मयोगी" के संपादन में सहयोग देने लगे.

1911 में विद्यार्थी जी सरस्वती में पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में नियुक्त हुए.
कुछ समय 9 - नवंबर, 1913 को कानपुर से स्वयं अपना हिंदी साप्ताहिक "प्रताप" के नाम से निकाला. पहले इन्होंने लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरु माना, किंतु राजनीति में गांधी जी के अवतरण के बाद वे गांधी जी के अनन्य भक्त हो गए.
2018 में दैनिक जागरण समाचार पत्र में प्रकाशित एक लेख 
कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने तथा अधिकारियों, जागीरदारों और पुलिस के अत्याचारों के विरुद्ध निर्भीक होकर "प्रताप" में लेख लिखने के करण वे 5 बार जेल भी गए. हिंसा और अहिंसा दोनों ही रास्तों पर चलने वाले स्वतंत्रता सेनानी, उनका सम्मान करते थे. वे महान समाज सुधारक होने के साथ बहुत ही धर्मपरायण और ईश्वरभक्त भी थे.

23 मार्च -1931 को "भगत सिंह"-"राजगुरु"-"सुखदेव" की फांसी देने से सारा देश उद्देलित था. उनकी फांसी के बिरोध में 25 मार्च को भारत बंद का आवाहन किया गया , लेकिन अंग्रेजों के चापलूसों ने उस बंद से दूर ही रहे. बल्कि अंग्रेजों को खुश करने के लिए उन्होंने बंद समर्थकों से झगडा भी किया.  कानपुर में भीषण दंगा ही हो गया था.

कानपुर में बाजार बंद करवा रहे लोगों पर, कुछ बंद बिरोधी मुसलमानों ने हमला कर, कानपुर में साम्प्रदायिक दंगा कर दिया. उस बुरे हालात में विद्यार्थी जी दंगे की आग बुझने के लिये घर से निकल पडे और हिन्दुओ / मुसलमानों को समझाने में लग गए. उनके साहसिक प्रयास से अनेकों हिन्दुओं और मुस्लिमो की जान बची.

अपने साथ कुछ मुसलमानों को लेकर, वे मुस्लिम बहुल इलाको में घूम रहे थे तभी कुछ अराजक मुस्लिम गुंडों ने उनपर हमला कर दिया. उनके साथ चल रहे मुसलमानों ने कहा - "ये गणेश शंकर विद्यार्थी हैं, इनकी बजह से हजारों मुस्लिम बच सके हैं". इस पर उन गुंडों ने कोई परवाह नहीं की और उनकी बल्लमो से पीटकर उनकी ह्त्या कर दी .

उनके साथ चल रहे लोग डरकर भाग गए. उनका शव अस्पताल में लाशों के मध्य ऐसी हालत में मिला कि - उसे पहचानना तक मुश्किल था. सम्प्रदियकता को मिटाने और हिन्दू मुस्लिम एकता के लिये, उन्होंने अपने जीवन वलिदान कर दिया.
लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि - आज कोई नेता " गणेश शंकर विद्यार्थी जी" का नाम लेने को भी तैयार भी नहीं है .

यह भी कहा जाता है कि - पहले उन्होंने हिन्दू बहुल इलाके में हिन्दुओं को समझाकर झगडा शांत किया और फिर वहां से कुछ मुस्लिम्स को साथ लेकर मुस्लिम बहुल इलाके में गए. जब मुस्लिम बहुल इलाके में लोगों को समझा रहे थे तो दंगाई यह कहकर उन पर टूट पड़े कि - है तो साला हिन्दू ही"

25 मार्च के ही दिन गणेश शंकर विद्यार्थी जी जैसे महान शख्सियत ने देश की अखण्डता को बनाये रखने के लिए अपना बलिदान दिया था ।
आज वो हमारे बीच नही हैं पर उनके बताये गए आदर्श व् सिद्धांत जरूर आज भी हमें मजबूती प्रदान करते हैं ।
वो अक्सर कहा करते थे की समाज का हर नागरिक एक पत्रकार है इसलिए उसे अपने नैतिक दायित्वों का निर्वाहन सदैव करना चाहिए ।
गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता को एक मिशन मानते थे पर आज के समय में पत्रकारिता मिशन नही बल्कि इसमें बाजार हावी हो गया है जिसके कारण इसकी मौजूदा प्रासंगिकता खतरे में है । 
हम आज डिजिटल इंडिया की सूचना क्रांति के दौर में जी रहे हैं जिसने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अमूल चूक परिवर्तन किया है ..
एक पत्रकार के ऊपर समाज की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है इसलिए इसे हमेशा सजग व् सचेत रहना चाहिए 
ऐसे महान व् कर्मठ व्यक्तित्व को
कोटि कोटि नमन 🙏🌹🙏

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गुरुवार, 1 नवंबर 2018

कौन हैं ये बुजुर्ग जो रेलवे स्टेशन पर दिखते है फिल्मी अंदाज में !


कौन हैं ये बुजुर्ग जो रेलवे स्टेशन पर दिखते है फिल्मी अंदाज में !

इस अजीब नज़ारे को देखकर हर कोई हैरत में पड़ जाता है जब बड़ी बड़ी मूंछो वाला एक 80 वर्षीय बुजुर्ग एक रेलवे स्टेशन पर कुर्सी डालकर बैठता है और साथ में होते हैं कई गनर और सैकड़ो लोगों का हुजूम .आइये जानते क्या है पूरा मामला .

दरसल ये बुजुर्ग और कोई नही कुंडा से निर्दलीय विधायक राजा भैया के पूज्नीय पिता जी भदरी नरेश श्री महाराजा उदय प्रताप सिंह जी है. जो की शुरू से ही एक कट्टर हिन्दू छवि वाले व्यक्ति रहे हैं और इस उम्र में भी वो सनातन धर्म के लिए संघर्ष करते हुए दिखाई देते हैं…
दरसल महाराज उदय सिंह जी कुंडा रेलवे स्टेशन पर कई सालों से वो पुण्य कार्य कर रहे हैं जो कार्य सरकारें व बड़ी बड़ी सामाजिक संस्थाएं भी नही कर सकती . 
महाराजा उदयप्रताप जी कई वर्षों से प्रतिदिन कुंडा स्टेशन पर रेलवे यात्रियों को मुफ्त में { पानी – लस्सी – छाछ – नाश्ता- खाना} आदि का भंडारा करते हैं..

जिसे देखकर सभी लोग हैरत में पड़ जाते हैं कि कैसे कोई इंसान इतना बड़ा दान कर सकता है वो भी लगातार बर्षो तक सब जानते है कि अब राजतन्त्र नही रहा जनतन्त्र आने पर राजाओ की लगभग सारी सम्पत्ति सरकार ने लेली थी .
फिर भी आज वही राजाओ वाला रुतबा और त्याग आज के समय मे रखना बहुत ही बड़ी बात है .
इस पर महाराज उदय प्रताप सिंह जी का बस इतना ही कहना होता है कि मानव सेवा ही सनातन धर्म है . 
मैं वही कर रहा हूँ

शायद इसी त्याग और भाव के लिए लोग बड़े महाराज को पूजते हैं.
और इसलिये समाज उन्हें और राजा भैया को गरीबों का मसीहा कहता हैं.. 
क्योंकि यही छवि आज राजा भैया में भी दिखती है .
और राजा भैया द्वारा किये गए 800 से ज्यादा गरीव कन्यायों के विवाह- निकाह इस बात का जीता जागता उदाहरण है….
हमे गर्व है कि भारत मे अभी भी ऐसे महान लोग हैं जो सनातनी परम्परा को जीवित बनाये हुए हैं.

आत्म गौरव न्यूज़ .com की ओर से महराज जी को बहुत बहुत साधुवाद 🙏

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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

बुंदेलखंड का रॉबिनहुड या डकैत ...


                  बुंदेलखंड का रॉबिनहुड या डकैत

✍ गौरव सिंह मुख्य सम्पादक

बुंदेलखंड ( चित्रकूट ) - उत्तर प्रदेश के जनपद चित्रकूट में रैपुरा क्षेत्र के देवकली गांव में राम प्यारे पटेल का बड़ा बेटा शिव कुमार पटेल उर्फ ददुआ ने 32 साल तक बागी जीवन व्यतीत किया। ददुआ के बारे में यह एक बात और रोचक है कि वह 32 साल के डकैत करियर के दौरान कभी पुलिस के हाथ नहीं लगा। वह पहला डकैत था जो 32 साल तक आतंक करता रहा, लेकिन पुलिस उस तक नहीं पहुंच पाई थी। 

बताया जाता है कि पिता की मौत का बदला लेने के लिए ही ददुआ ने हथियार उठाया था और आठ लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।

राजनीतिक गलियारों में बुन्देलखण्ड की पूरी डोर चाहे वो विधानसभा हो या लोकसभा , नगर पंचायत हो या नगर पालिका ,जिला पंचायत अध्यक्ष हो या ग्राम प्रधान हो सभी का निर्णय ददुआ की अनुमति के बगैर नहीं होता था। एक पक्ष जो आतंक के इस पर्याय को औरों से अलग करता है, वो ये की पूरे क्षेत्र में एक बात लगभग हर मुह से कही जाती है कि 'ददुआ कभी गरीबों पर जुल्म नहीं करता था, बल्कि उनकी ज्यादा से ज्यादा मदद ही करता था, जिसके कारण उसे 'भारत के रॉबिनहुड' की भी संज्ञा दी जाती थी।

1992 में इलाहाबाद, बांदा और फतेहपुर के संयुक्त पुलिस अभियान में दस्यु सरगना फतेहपुर में धाता क्षेत्र के घटईपुर और नरसिंहपुर कबरहा गांव के बीच गन्ने के खेतों में फंस गया था। उस समय ददुआ के साथ करीब 72 डकैत साथी मौजूद थे। इस घेराबंदी में पुलिस के 500 जवान नियुक्त थे। ददुआ के विधायक पुत्र वीर सिंह ने बताया कि अपने को पूरी तरह से घिरा पाकर ददुआ ने संकल्प लिया था कि यदि मैं बच जाता हूं तो पंचमुखी हनुमान मन्दिर की स्थापना करूंगा और ददुआ बाल-बाल बच गया। इसके बाद 1996 में ददुआ ने उसी स्थान पर मन्दिर की स्थापना की थी। 2004 में पंचमुखी हनुमान जी की मूर्ति बिठाकर प्राण प्रतिष्ठा की थी।

धाता फतेहपुर में बना दस्यु सम्राट ददुआ का मंदिर

दस्यु सरगना के बढते आतंक से परेशान उत्तर प्रदेश पुलिस ने उसको जिंदा अथवा मुर्दा पकडने के एवज में सात लाख रुपये का ईनाम घोषित किया था। घोषणा के समय केवल स्केच द्वारा बनाया गया काल्पनिक चित्र ही पत्रकारों को दिया गया था। इसके बाद फरवरी 2007 में चित्रकूट स्थित घनघोर जगमल के जंगल में एसटीएफ की मुठभेड में दस्यु ददुआ दस डकैतों के साथ मारा गया। दस्यु ददुआ के मारे जाने के 24 घंटे के अंदर उसके शिष्य डकैत अंबिका पटेल उर्फ ठोकिया ने उन छह एसटीएफ जवानों को घात लगाकर मार दिया जो ददुआ को मारे जाने वाले पुलिस दल में शामिल थे।

आस -पास के गांवों में जहा एक वर्ग उसे मसीहा मानता है वही एक वर्ग उसे डकैत की संज्ञा देता है इसलिए ये निष्कर्ष निकाल पाना बेहद मुश्किल है कि वास्तव में उसे रॉबिनहुड कहा जाना चाहिए या फिर एक डकैत....

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सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

आज विशेष जन्मतिथि Dr. Abdul Kalam


आज विशेष जन्मतिथि 


अबुल पकिर जैनुलाअबदीन अब्दुल #कलाम अथवा 
ए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलाम  (15 अक्टूबर 1931 - 27 जुलाई 2015) जिन्हें मिसाइल मैन और जनता के राष्ट्रपति के नाम से जाना जाता है, भारतीय गणतंत्र के ग्यारहवें निर्वाचित राष्ट्रपति थे।वे भारत के पूर्व राष्ट्रपति,
जानेमाने वैज्ञानिक और अभियंता (इंजीनियर) के रूप में विख्यात थे।
इन्होंने मुख्य रूप से एक वैज्ञानिक और विज्ञान के व्यवस्थापक के रूप में चार दशकों तक रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) संभाला व भारत के नागरिक अंतरिक्ष कार्यक्रम और सैन्य मिसाइल के विकास के प्रयासों में भी शामिल रहे। इन्हें बैलेस्टिक मिसाइल और प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी के विकास के कार्यों के लिए भारत में मिसाइल मैन के रूप में जाना जाने लगा।

इन्होंने 1974 में भारत द्वारा पहले मूल परमाणु परीक्षण के बाद से दूसरी बार 1998 में भारत के पोखरान-द्वितीय परमाणु परीक्षण में एक निर्णायक, संगठनात्मक, तकनीकी और राजनैतिक भूमिका निभाई।

कलाम सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी व विपक्षी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दोनों के समर्थन के साथ 2002 में भारत के राष्ट्रपति चुने गए।पांच वर्ष की अवधि की सेवा के बाद, वह शिक्षा, लेखन और सार्वजनिक सेवा के अपने नागरिक जीवन में लौट आए। इन्होंने भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त किये।

प्रारंभिक जीवन


15 अक्टूबर 1931 को धनुषकोडी गाँव (रामेश्वरम, तमिलनाडु) में एक मध्यमवर्ग मुस्लिम परिवार में इनका जन्म हुआ।इनके पिता जैनुलाब्दीन न तो ज़्यादा पढ़े-लिखे थे, न ही पैसे वाले थे।इनके पिता मछुआरों को नाव किराये पर दिया करते थे। अब्दुल कलाम संयुक्त परिवार में रहते थे। परिवार की सदस्य संख्या का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह स्वयं पाँच भाई एवं पाँच बहन थे और घर में तीन परिवार रहा करते थे।अब्दुल कलाम के जीवन पर इनके पिता का बहुत प्रभाव रहा। वे भले ही पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनकी लगन और उनके दिए संस्कार अब्दुल कलाम के बहुत काम आए।पाँच वर्ष की अवस्था में रामेश्वरम के पंचायत प्राथमिक विद्यालय में उनका दीक्षा-संस्कार हुआ था। उनके शिक्षक इयादुराई सोलोमन ने उनसे कहा था कि जीवन मे सफलता तथा अनुकूल परिणाम प्राप्त करने के लिए तीव्र इच्छा, आस्था, अपेक्षा इन तीन शक्तियो को भलीभाँति समझ लेना और उन पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहिए।

अब्दुल कलाम ने अपनी आरंभिक शिक्षा जारी रखने के लिए अख़बार वितरित करने का कार्य भी किया था।कलाम ने 1950में मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलजी से अंतरिक्ष विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। स्नातक होने के बाद उन्होंने हावरक्राफ्ट परियोजना पर काम करने के लिये भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में प्रवेश किया। 1962 में वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन में आये जहाँ उन्होंने सफलतापूर्वक कई उपग्रह प्रक्षेपण परियोजनाओं में अपनी भूमिका निभाई। परियोजना निदेशक के रूप में भारत के पहले स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यानएसएलवी 3 के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिससे जुलाई 1982 में रोहिणी उपग्रह सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया था।

पुरस्कार एवं सम्मान


कलाम के 79 वें जन्मदिन को संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व विद्यार्थी दिवस के रूप में मनाया गया था। इसके आलावा उन्हें लगभग चालीस विश्वविद्यालयों द्वारा मानद डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्रदान की गयी थीं भारत सरकार द्वारा उन्हें 1981 में पद्म भूषण और 1990 में पद्म विभूषण का सम्मान प्रदान किया गया जो उनके द्वारा इसरो और डी आर डी ओ में कार्यों के दौरान वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिये तथा भारत सरकार के वैज्ञानिक सलाहकार के रूप में कार्य हेतु प्रदान किया गया था।

1997 में कलाम साहब को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया जो उनके वैज्ञानिक अनुसंधानों और भारत में तकनीकी के विकास में अभूतपूर्व योगदान हेतु दिया गया था।

वर्ष 2005 में स्विट्ज़रलैंड की सरकार ने कलाम के स्विट्ज़रलैंड आगमन के उपलक्ष्य में 26 मई को विज्ञान दिवस घोषित किया।नेशनल स्पेस सोशायटी ने वर्ष 2013 में उन्हें अंतरिक्ष विज्ञान सम्बंधित परियोजनाओं के कुशल संचलन और प्रबंधन के लिये वॉन ब्राउन अवार्ड से पुरस्कृत किया।

निधन


27 जुलाई 2015 की शाम अब्दुल कलाम भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलोंगमें 'रहने योग्य ग्रह' पर एक व्याख्यान दे रहे थे जब उन्हें जोरदार कार्डियक अरेस्ट (दिल का दौरा) हुआ और ये बेहोश हो कर गिर पड़े।लगभग 6:30 बजे गंभीर हालत में इन्हें बेथानी अस्पताल में आईसीयू में ले जाया गया और दो घंटे के बाद इनकी मृत्यु की पुष्टि कर दी गई।अस्पताल के सीईओ जॉन साइलो ने बताया कि जब कलाम को अस्पताल लाया गया तब उनकी नब्ज और ब्लड प्रेशर साथ छोड़ चुके थे। अपने निधन से लगभग 9 घण्टे पहले ही उन्होंने ट्वीट करके बताया था कि वह शिलोंग आईआईएम में लेक्चर के लिए जा रहे हैं।

कलाम अक्टूबर 2015 में 84 साल के होने वाले थे।मेघालय के राज्यपाल वी॰ षडमुखनाथन; अब्दुल कलाम के हॉस्पिटल में प्रवेश की खबर सुनते ही सीधे अस्पताल में पहुँच गए। बाद में षडमुखनाथन ने बताया कि कलाम को बचाने की चिकित्सा दल की कोशिशों के बाद भी शाम 7:45 पर उनका निधन हो गया।

सादर नमन🙏🙏

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मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

आज विशेष जन्मतिथि आज देश गांधी जयंती के साथ भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयंती मना रहा है।



आज विशेष जन्मतिथि 
आज देश गांधी जयंती के साथ भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयंती मना रहा है। 

गौरव सिंह गौतम [मुख्य संपादक आत्मगौरव न्यूज़. कॉम]

लाल बहादुर शास्त्री



सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले शास्त्री जी एक शांत चित्त व्यक्तित्व भी थे। शास्त्री जी का जन्म उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में 2 अक्टूबर 1904 को मुंशी लाल बहादुर शास्त्री के रूप में हुआ था। वह अपने घर में सबसे छोटे थे तो उन्हें प्यार से नन्हें बुलाया जाता था। उनकी माता का नाम राम दुलारी था और पिता का नाम मुंशी प्रसाद श्रीवास्तव था। शास्त्री जी की पत्नी का नाम ललिता देवी था।

मुश्किल परिस्थितियों हासिल की शिक्षा-बचपन में ही पिता की मौत होने के कारण नन्हें अपनी मां के साथ नाना के यहां मिर्जापुर चले गए। यहीं पर ही उनकी प्राथमिक शिक्षा हुई। उन्होंने विषम परिस्थितियों में शिक्षा हासिल की। कहा जाता है कि वह नदी तैरकर रोज स्कूल जाया करते थे। क्योंकि जब बहुत कम गांवों में ही स्कूल होते थे। लाल बहादुर शास्त्री जब काशी विद्यापीठ से संस्कृत की पढ़ाई करके निकले तो उन्हें शास्त्री की उपाधि दी गई। इसके बाद उन्होंने अपने नाम के आगे शास्त्री लगाने लगे।


शास्त्री जी का विवाह 1928 में ललिता शास्त्री के साथ हुआ। जिनसे दो बेटियां और चार बेटे हुए। एक बेटे का नाम अनिल शास्त्री है जो कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं। देश के अन्य नेताओं की भांति शास्त्री जी में भी देश को आजाद कराने की ललक थी लिहाजा वह 1920 में ही आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। उन्होंने 1921 के गांधी से असहयोग आंदोलन से लेकर कर 1942 तक अंग्रेजों भारत छोड़ों आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। इस दौरान कई बार उन्हें गिरफ्तार भी किया गया और पुलिसिया कार्रवाई का शिकार बने।

दिया 'जय जवान जय किसान' का नारा
शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 1965 में भारत पाकिस्तान का युद्ध हुआ जिसमें शास्त्री जी ने विषम परिस्थितियों में देश को संभाले रखा। सेना के जवानों और किसानों महत्व बताने के लिए उन्होंने 'जय जवान जय किसान' का नारा भी दिया। 11 जनवरी 1966 को शास्त्री की मौत ताशकंद समझौत के दौरान रहस्यमय तरीके से हो गई।


महात्मा गाँधी


गुजरात में 2 अक्तूबर 1869 को जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी ने सत्य और अहिंसा को अपना ऐसा मारक और अचूक हथियार बनाया जिसके आगे दुनिया के सबसे ताकतवर ब्रिटिश साम्राज्य को भी घुटने टेकने पड़े। आज उनकी 149वीं जयंती के मौके पर आइये हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि पोरबंदर के मोहनदास को उनके जीवन के किन महत्वपूर्ण पड़ावों और घटनाओं ने महात्मा बना दिया।


मोहन दास के जीवन पर पिता करमचंद गांधी से ज्यादा उनकी माता पुतली बाई के धार्मिक संस्कारों का प्रभाव पड़ा। बचपन में सत्य हरिश्चंद्र और श्रवण कुमार की कथाओं ने उनके जीवन पर इतना गहरा असर डाला कि उन्होंने इन्हीं आदर्शों को अपना मार्ग बना लिया। जिस पर चलते हुए बापू देश के राष्ट्रपिता बन गए। 


वर्ष 1883 में कस्तूरबा से उनका विवाह के दो साल बाद उनके पिता का देहांत हो गया। राजकोट के अल्फ्रेड हाई स्कूल और भावनगर के शामलदास स्कूल में शुरुआती पढ़ाई पूरी कर मोहन दास 1888 में बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन पहुंच गए। स्वदेश लौटकर बंबई में वकालत शुरू की, लेकिन खास सफलता नहीं मिलने पर 1893 में वकालत करने दक्षिण अफ्रीका चले गए। यहां गांधी को अंग्रेजों के भारतीयों के साथ जारी भेदभाव का अनुभव हुआ और उन्हें इसके खिलाफ संघर्ष को प्रेरित किया। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उनकी कामयाबी ने गांधी को भारत में भी मशहूर कर दिया और वर्ष 1917 में उन्होंने चंपारण के नील किसानों पर अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। इसके बाद तो गांधी जी के जीवन का एकमात्र लक्ष्य ही ब्रितानी हुकूमत को देश के बाहर खदेड़ना बन गया। आखिर 15 अगस्त 1947 को देश को आजादी मिली और पूरे देश ने उन्हें अपना ‘राष्ट्रपिता’ माना।

सादर नमन 🙏🙏
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मंगलवार, 25 सितंबर 2018

आज विशेष जन्मतिथि पं० दीनदयाल_उपाध्याय

 #आज_विशेष_जन्मतिथि 

#दीनदयाल_उपाध्याय 
( #जन्म: 25 7, 1916, मथुरा, उत्तर प्रदेश; #मृत्यु: 11 फ़रवरी 1968) 

भारतीय जनसंघ के नेता थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक ऐसे नेता थे जिन्होंने जीवनपर्यंन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा को महत्त्व दिया। वे भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। 
पंडित दीनदयाल उपाध्याय मज़हब और संप्रदाय के आधार पर भारतीय संस्कृति का विभाजन करने वालों को देश के विभाजन का ज़िम्मेदार मानते थे। वह हिन्दू राष्ट्रवादी तो थे ही, इसके साथ ही साथ भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे। दीनदयाल की मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं। दीनदयाल उपाध्याय की पुस्तक एकात्म मानववाद (इंटीगरल ह्यूमेनिज्म) है जिसमें साम्यवाद और पूंजीवाद, दोनों की समालोचना की गई है। एकात्म मानववाद में मानव जाति की मूलभूत आवश्यकताओं और सृजित क़ानूनों के अनुरुप राजनीतिक कार्रवाई हेतु एक वैकल्पिक सन्दर्भ दिया गया है।

जीवन_परिचय 

दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को ब्रज के पवित्र क्षेत्र मथुरा ज़िले के छोटे से गाँव 'नगला चंद्रभान' में हुआ था। दीनदयाल के पिता का नाम 'भगवती प्रसाद उपाध्याय' था। इनकी माता का नाम 'रामप्यारी' था जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर बीतता था। उनके पिता कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे। थोड़े समय बाद ही दीनदयाल के भाई ने जन्म लिया जिसका नाम 'शिवदयाल' रखा गया। पिता भगवती प्रसाद ने अपनी पत्नी व बच्चों को मायके भेज दिया। उस समय दीनदयाल के नाना चुन्नीलाल शुक्ल धनकिया में स्टेशन मास्टर थे। मामा का परिवार बहुत बड़ा था। दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ खाते-खेलते बड़े हुए। वे दोनों ही रामप्यारी और दोनों बच्चों का ख़ास ध्यान रखते थे। 3 वर्ष की मासूम उम्र में दीनदयाल पिता के प्यार से वंचित हो गये। पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। उन्हें क्षय रोग हो गया। 8 अगस्त सन् 1924 को रामप्यारी बच्चों को अकेला छोड़ ईश्वर को प्यारी हो गयीं। 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये। सन् 1934 में बीमारी के कारण दीनदयाल के भाई का देहान्त हो गया।

शिक्षा

 गंगापुर में दीनदयाल के मामा 'राधारमण' रहते थे। उनका परिवार उनके साथ ही था। गाँव में पढ़ाई का अच्छा प्रबन्ध नहीं था, इसलिए नाना चुन्नीलाल ने दीनदयाल और शिबु को पढ़ाई के लिए मामा के पास गंगापुर भेज दिया। गंगापुर में दीना की प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ हुआ। मामा राधारमण की भी आय कम और खर्चा अधिक था। उनके अपने बच्चों का खर्च और साथ में दीना और शिबु का रहन-सहन और पढ़ाई का खर्च करनी पड़ती थी।


स्वर्ण_पदक 

सन 1937 में इण्टरमीडिएट की परीक्षा दी। इस परीक्षा में भी दीनदयाल जी ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर एक कीर्तिमान स्थापित किया। बिड़ला कॉलेज में इससे पूर्व किसी भी छात्र के इतने अंक नहीं आए थे। जब इस बात की सूचना घनश्याम दास बिड़ला तक पहुँची तो वे बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने दीनदयाल जी को एक स्वर्ण पदक प्रदान किया। उन्होंने दीनदयाल जी को अपनी संस्था में एक नौकरी देने की बात कही। दीनदयाल जी ने विनम्रता के साथ धन्यवाद देते हुए आगे पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। बिड़ला जी इस उत्तर से बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, 'आगे पढ़ना चाहते हो, बड़ी अच्छी बात है। हमारे यहाँ तुम्हारे लिए एक नौकरी हमेशा ख़ाली रहेगी। जब चाहो आ सकते हो।' धन्यवाद देकर दीनदयाल जी चले गए। बिड़ला जी ने उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान की।


सर्वोच्च_अध्यक्ष 

पंडित दीनदयाल जी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। आख़िर में जनसंघ के इतिहास में चिरस्मरणीय दिन आ गया जब पार्टी के इस अत्यधिक सरल तथा विनीत नेता को सन् 1968 में पार्टी के सर्वोच्च अध्यक्ष पद पर बिठाया गया। दीनदयाल जी इस महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी को संभालने के पश्चात् जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण भारत गए। देश सेवा पंडित जी घर गृहस्थी की तुलना में देश की सेवा को अधिक श्रेष्ठ मानते थे। दीनदयाल देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने कहा था कि 'हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल ज़मीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा। पंडित जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को पूरी रचनात्मकता और विश्लेषणात्मक गहराई से जिया है। पत्रकारिता जीवन के दौरान उनके लिखे शब्द आज भी उपयोगी हैं। प्रारम्भ में समसामयिक विषयों पर वह 'पॉलिटिकल डायरी‘ नामक स्तम्भ लिखा करते थे। पंडित जी ने राजनीतिक लेखन को भी दीर्घकालिक विषयों से जोडकर रचना कार्य को सदा के लिए उपयोगी बनाया है।

मृत्यु

विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी, पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की हत्या सिर्फ़ 52 वर्ष की आयु में 11 फ़रवरी 1968 को मुग़लसराय के पास रेलगाड़ी में यात्रा करते समय हुई थी। उनका पार्थिव शरीर मुग़लसराय स्टेशन के वार्ड में पड़ा पाया गया। भारतीय राजनीतिक क्षितिज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में सभ्यतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिया।

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बुधवार, 5 सितंबर 2018

आज विशेष शिक्षक दिवस

आज विशेष जन्मतिथि
डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन
शिक्षक दिवस

✍ गौरव सिंह गौतम 

भारत के दूसरे राष्ट्रपति और महान दार्शनिक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस को भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। 

दुनिया भर में टीचर्स डे मनाने की अलग-अलग तिथियां निर्धारित हैं। यूनेस्को की ओर से शिक्षक दिवस मनाने के लिए 5 अक्टूबर की तिथि निर्धारित है। 

इसलिए,दुनिया के 100 से ज्यादा देशों में 5 अक्टूबर को टीचर्स डे मनाया जाता है। भारत में 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाने के पीछे एक कहानी है। 

आइए, आज हम आपको टीचर्स से जुड़े इस किस्से के बारे में बताते हैं।

कौन थे राधाकृष्णन 



डा. सर्वपल्‍ली राधा कृष्णन भारत के दूसरे राष्ट्रपति और एक शिक्षक थे। 
वह पूरी दुनिया को ही स्कूल मानते थे। 
उनका जन्म 5 सितंबर 1888 को तिरुतनी नाम के गांव में हुआ था। सर्वपल्ली राधाकृष्णन हमारे देश के दूसरे राष्ट्रपति थे। 
राजनीति में आने से पहले उन्होंने अपने जीवन के 40 साल अध्यापन को दिये थे। उनका कहना था कि जहां कहीं से भी कुछ सीखने को मिले उसे अपने जीवन में उतार लेना चाहिए। 
वह पढ़ाने से ज्यादा छात्रों के बौद्धिक विकास पर जोर देने की बात करते थे। 
वह पढ़ाई के दौरान काफी खुशनुमा माहौल बनाकर रखते थे। 
1954 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।

राधाकृष्णन के जन्मदिन को ही क्यों मनाते हैं शिक्षक दिवस ?



डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के दूसरे राष्ट्रपति होने के अलावा एक विख्यात दार्शनिक, महान शिक्षाविद तथा शिक्षक थे। 
उनके छात्र उनसे बहुत स्नेह करते थे। एक बार उनके कुछ शिष्यों तथा दोस्तों ने उनका जन्मदिन मनाने का निश्चय किया। 
इस बारे में वे जब उनसे अनुमति लेने गए तो उन्होंने कहा कि मेरा जन्मदिन अलग से मनाए जाने की बजाय अगर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाएगा तो मुझे गर्व महसूस होगा। 
इसी के बाद से पूरे देश में 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। 
देश में पहली बार 5 सितंबर 1962 को शिक्षक दिवस मनाया गया था।

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बुधवार, 15 अगस्त 2018

#स्वतंत्रता_दिवस


#स्वतंत्रता_दिवस 

ग़ौरव सिंह गौतम ( प्रधान संपादक )

बात कई वर्ष पूर्व की है ,जब मैं विद्या मंदिर विद्यालय में पढ़ रहा था । 
उसी समय प्लास्टिक के तिरंगों का प्रचलन शुरू हुआ था । 
उस दिन स्वतंत्रता दिवस था और मैं बहुत खुश था, क्योंकि ऐसे अवसर पर हमें स्पर्धाओं में भाग लेने का मौका मिलता था।
मैं भी प्रातः विद्यालय पहुँच  गया और वहाँ पर अधिकांश छात्रों के हाथ में प्लास्टिक का तिरंगा लिए देख मन में थोड़ा सा ग्लानि हुई कि आज के दिन मेरे हाथ में भी तिरंगा होना चाहिए था परन्तु तबतक मैं प्लास्टिक के तिरंगे से अनजान था| 
हाँ, बचपन में राकेश आचार्य जी के निर्देश पर कागज पर तिरंगा बनाकर खुद से रंग भरकर उसमें चक्र बना देते थे और वही हमारा तिरंगा हुआ करता था। 
ध्वजारोहण के पश्चात् राष्ट्रगान हुआ,विभिन्न कार्यक्रम हुए और मोदक(लड्डू) वितरण हुआ।
कुछ लोगों को छोड़ बाकी सभी छात्र-छात्राएँ जा चुके थे , 
तो मैंने देखा कि 10-15 तिरंगे ज़मीन पे पड़े भारत माता की मिट्टी को प्रणाम कर रहे थे जिन्हे थोड़ी देर पहले हाथ में लेकर भारत माता की जय के उद्घोष किये जा रहे थे । 
मैंने उन्हें उठाकर उनमे से कुछ को विद्यालय के छप्पर में लगाया और 2-3 घर ले गया । 
ऐसे ही न जाने कितने विद्यालयों में तिरंगे बिखरे पड़े होगें, लोग खरीद तो लेते हैं पर उन्हें कैसे रखना है इस बात पर ध्यान क्यों नहीं देते।
कबीरदास जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी थीं - 
केका समुझाई राम जगत होइ गा अंधा
दुइ चार होंय, उन्हई समझावउँ,
अबहीं भुलाने पेट क धंधा ... 
 हवा की गति थोड़ा तीव्र हुई ,
मैंने जाने से पहले एक बार पीछे मुडकर देखा,सभी तिरंगे हवा के झोंकों से खेल रहे थे।
मन में थोड़ी संतुष्टि की अनुभूति हुई और मैं वापस घर की ओर चल पड़ा।
मेरे हाथ में भी तिरंगा लहरा रहा था और वो भी अपनी प्रसन्नता दिखा रहा था।

आप सभी आत्म गौरव न्यूज़.कॉम के सुधी पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।

वंदे_मातरम् 🚩🚩जय हिंद 🇮🇳🇮🇳

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शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

आज विशेष - लघुकथा डॉ० अब्दुल कलाम





आज विशेष - लघुकथा डॉ० अब्दुल कलाम

✍ गौरव सिंह गौतम (प्रधान संपादक)

अबुल पाकिर जैनुलाअबदीन अब्दुल कलाम 
अथवा ए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलाम 
( #जन्म 15 अक्टूबर 1931 - #मृत्यु 27 जुलाई 2015) जिन्हें मिसाइल मैन और जनता के राष्ट्रपति के नाम से जाना जाता है, 
भारतीय गणतंत्र के ग्यारहवें निर्वाचित राष्ट्रपति थे।वे भारत के पूर्व राष्ट्रपति, जानेमाने वैज्ञानिक और अभियंता (इंजीनियर) के रूप में विख्यात थे।

महान वैज्ञानिक अब्दुल कलाम जी का जीवन परिचय 
  
अब्दुल कलाम संयुक्त परिवार में रहते थे। 
परिवार की सदस्य संख्या का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह स्वयं पाँच भाई एवं पाँच बहन थे और घर में तीन परिवार रहा करते थे। 
इनका कहना था कि वह घर में तीन झूले (जिसमें बच्चों को रखा और सुलाया जाता है) देखने के अभ्यस्त थे। 
इनकी दादी माँ एवं माँ द्वारा ही पूरे परिवार की परवरिश की जाती थी। 
घर के वातावरण में प्रसन्नता और वेदना दोनों का वास था। इनके घर में कितने लोग थे और इनकी माँ बहुत लोगों का खाना बनाती थीं क्योंकि घर में तीन भरे-पूरे परिवारों के साथ-साथ बाहर के लोग भी हमारे साथ खाना खाते थे। 
इनके घर में खुशियाँ भी थीं, तो मुश्किलें भी थी। 
अब्दुल कलाम के जीवन पर इनके पिता का बहुत प्रभाव रहा। वे भले ही पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनकी लगन और उनके दिए संस्कार अब्दुल कलाम के बहुत काम आए। 
अब्दुल कलाम के पिता चारों वक़्त की नमाज़ पढ़ते थे और जीवन में एक सच्चे इंसान थे। 

जीवन की एक घटना

अब्दुल कलाम के जीवन की एक घटना है, 
कि यह भाई-बहनों के साथ खाना खा रहे थे। 
इनके यहाँ चावल खूब होता था, 
इसलिए खाने में वही दिया जाता था, रोटियाँ कम मिलती थीं। जब इनकी माँ ने इनको रोटियाँ ज़्यादा दे दीं, 
तो इनके भाई ने एक बड़े सच का खुलासा किया। 
इनके भाई ने अलग ले जाकर इनसे कहा कि माँ के लिए एक-भी रोटी नहीं बची और तुम्हें उन्होंने ज़्यादा रोटियाँ दे दीं। 
वह बहुत कठिन समय था और उनके भाई चाहते थे कि अब्दुल कलाम ज़िम्मेदारी का व्यवहार करें।
तब यह अपने जज़्बातों पर काबू नहीं पा सके और दौड़कर माँ के गले से जा लगे। 
उन दिनों कलाम कक्षा पाँच के विद्यार्थी थे। 
इन्हें परिवार में सबसे अधिक स्नेह प्राप्त हुआ क्योंकि यह परिवार में सबसे छोटे थे। 
तब घरों में विद्युत नहीं थी और केरोसिन तेल के दीपक जला करते थे, जिनका समय रात्रि 7 से 9 तक नियत था। 
लेकिन यह अपनी माता के अतिरिक्त स्नेह के कारण पढ़ाई करने हेतु रात के 11 बजे तक दीपक का उपयोग करते थे। अब्दुल कलाम के जीवन में इनकी माता का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इनकी माता ने 92 वर्ष की उम्र पाई। 
वह प्रेम, दया और स्नेह की प्रतिमूर्ति थीं। उनका स्वभाव बेहद शालीन था। 
इनकी माता पाँचों समय की नमाज़ अदा करती थीं। 
जब इन्हें नमाज़ करते हुए अब्दुल कलाम देखते थे तो इन्हें रूहानी सुकून और प्रेरणा प्राप्त होती थी।

जिस घर अब्दुल कलाम का जन्म हुआ, 
वह आज भी रामेश्वरम में मस्जिद मार्ग पर स्थित है। 
इसके साथ ही इनके भाई की कलाकृतियों की दुकान भी संलग्न है। 
यहाँ पर्यटक इसी कारण खिंचे चले आते हैं, क्योंकि अब्दुल कलाम का आवास स्थित है। 
1964 में 33 वर्ष की उम्र में डॉक्टर अब्दुल कलाम ने जल की भयानक विनाशलीला देखी और जल की शक्ति का वास्तविक अनुमान लगाया। 
चक्रवाती तूफ़ान में पायबन पुल और यात्रियों से भरी एक रेलगाड़ी के साथ-साथ अब्दुल कलाम का पुश्तैनी गाँव धनुषकोड़ी भी बह गया था। 
जब यह मात्र 19 वर्ष के थे, तब द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका को भी महसूस किया। 
युद्ध का दवानल रामेश्वरम के द्वार तक पहुँचा था। 
इन परिस्थितियों में भोजन सहित सभी आवश्यक वस्तुओं का अभाव हो गया था।

मृत्यु

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, शिलांग में व्याख्यान देते समय गंभीर दिल का दौरा पड़ने के कारण 27 जुलाई 2015 को डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम इस संसार को अलविदा कह गये।

उन्होंने अपने निधन से पूर्व 9 घंटे पहले टवीट करके कहा था की वे शिलांग आई आई ऍम में लेक्चर देने के लिए जा रहे हैं..

उनका कहना था 


“….मैं यह बहुत गर्वान्वित पूर्वक तो नहीं कह सकता कि मेरा जीवन किसी के लिए आदर्श बन सकता है, लेकिन जिस तरह मेरे नियति ने आकार ग्रहण किया उससे किसी ऐसे गरीब बच्चे को सात्वना अवश्य मिलेगी जो किसी छोटी से जगह पर सुविधाहीन सामाजिक दशाओं में रह रहा हो|
शायद यह ऐसे बच्चों को उनके पिछड़ेपन और निराशा की भावनाओं से विमुक्त होने में अवश्य सहायता करे|”

ए॰ पी॰ जे॰ अब्दुल कलाम जी का अंतिम संस्कार
30 जुलाई 2015 को अब्दुल कलाम को पुरे सम्मान के साथ रामेश्वरम के पी करुम्बू ग्राउंड में दफना दिया गया..

नमन🙏🙏🙏
वन्दे_मातरम
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रविवार, 22 जुलाई 2018

लघुकथा - #जाकी_रही_भावना_जैसी

आज की कहानी #जाकी_रही_भावना_जैसी 


वकील साहब गाँव के रहने वाले थे ।
पुस्तैनी जायदाद भी काफी थी ।
चार भाइयों का परिवार था ।
 दो भाई वकील बने तो कस्बे में रहते और शेष दो खेती का काम कराते थे । 
इस समय दो भाइयों की पत्नियाँ गर्भवती थीं और दोनों कस्बे में थीं । 
छोटी के समय आने पर प्रसव हुआ तो मृत शिशु को जन्म दिया और संक्रमण ऐसा हुआ कि उसके गर्भाशय को निकालने की दशा में ही नमिता का जीवन बचना संभव था , 
बड़े भाई ने बहू के जीवन को महत्वपूर्ण समझा और अनुमति प्रदान कर दी ।
             कुछ ही महीनों बाद उनकी पत्नी ने जुड़वां बेटों को जन्म दिया। 
वकील साहब ने अपनी पत्नी की अनुमति से एक बेटा नमिता की गोद में डाल दिया और भाई से कहा कि यह तुम्हारा बेटा है और इसको पालो ।
           ये घटना परिवार में चारों ओर फैल गई । 
किसी ने सराहा कि कौन माँ बाप अपना बच्चा देने की हिम्मत करता है । 
एक सज्जन कुछ कुटिल सोच के थे बोले - "लोग समझ ही नहीं पाये , वकील ने अपनी बुद्धि लगाई और बेटा दे दिया कि जायदाद का हिस्सा अपने पास ही रहेगा । 
कुल जायदाद का आधा हिस्सा मिलेगा तो उन्हीं के बेटों को । अगर कहीं भाई ने कोई दूसरा बच्चा गोद ले लिया तो एक हिस्सा हाथ से निकल जायेगा ।"
     
वहाँ बैठे लोगों ने सोचा -' जाकी रही भावना जैसी।'

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रविवार, 8 जुलाई 2018

हम मिडिल क्लास आदमी


#हम_मिडिल_क्लास_आदमी.. 

गौरव सिंह गौतम ( प्रधान संपादक आत्म गौरव न्यूज़.कॉम )

हम मिडिल क्लास आदमी हैं। 
जब हम गोवा नहीं जा पाते तो चुप मार के अपने गाँव या नजदीक ही किसी धार्मिक स्थल चले जाते हैं ।

एक उमर तक ना हम ढेर आस्तिक हैं ना कम नास्तिक। कुछ कुछ मौक़ापरस्त 

पीड़ा में होते हैं तो भगवान को याद करते हैं। 
जब सब कुछ तबाह हो जाए तो भगवान को दोष देते हैं और जब मनोकामना पूरी हो जाए तो भगवान को किनारे कर देते हैं।

हम मोदी ,योगी , अखिलेश आदि नेताओं को गरियाते हैं और एक्टरों शाहरुख , सलमान आदि को पूजते हैं। 

हम अपने नेता विधायक , सांसद खुद चुनते हैं पर उनसे सवाल नहीं कर पाते । 
उनको ना कोस के ख़ुद को कोसते हैं। 
अमिताभ और सचिन हमारे भगवान होते हैं। 

हमको अटल बिहारी बाजपेयी के अलावा कोई और नेता लीडर लगता ही नहीं।

हम वो हैं जो कभी कभी फटे दूध की चाय बना लेते हैं। एक ईयर फ़ोन में दोस्त के साथ रेडियो पे नग़मे सुन लेते हैं। 
गरमी हो या बारिश हमें विंडो सीट ही चाहिए होती है। 
१५ ₹/किलो आलू जब हम मोलभाव करके १३ में और धनिया फ़्री मे लेके घर लौटते हैं तो सीना थोड़ा चौड़ा कर लेते हैं।

हम कभी कभी फ़ेरी वाले से हो किसी बड़े शॉपिंग मॉल में डिस्काउंट के चक्कर में समान अनायास ही ख़रीद लेते हैं। 
हम पैसे उड़ाते तो हैं पर हिसाब दिमाग़ में रखते हुए चलते हैं। 
हम दिया उधार जल्दी वापस नहीं माँग पाते ना ही लिया हुआ जल्दी चुका पाते हैं। 
संकोच जैसे हिमोग्लोबिन में तैरता हो हमारे।

हम ताला मारते हैं तो उसे दो तीन बार खींच के चेक कर लेते है कि ठीक से तो बंद हुआ है ना? 
बिजली की लाइट कटी हो तो बोर्ड की सारी स्विच ओन ओफ़ करके कन्फ़र्म करते हैं की कटी ही है। 
हमें ख़ुद की बिजली कटी होने पे तकलीफ़ तब तक नहीं होती जब तक पड़ोसी के यहाँ भी ना आ रही हो ।

बेकरी वाला बिस्क़िट और हल्दीराम की नमकीन हम सिर्फ़ ख़ास मेहमानों के लिए रखते हैं।
ज़िंदगी में कभी हवाई यात्रा का मौक़ा मिला तो हम उसका टिकट(बोर्डिंग पास सहित) हाई स्कूल-इण्टर की मार्कशीट की तरह सहेज के रखते हैं। 

हम स्लीपर ट्रेन में आठ की आठ सीटों पे बैठे यात्रियों की बात चाव से सुनते हैं और उनको अपनी तकलीफ़ और क़िस्से सुनाते हैं ।

भीड़ में कोई चेहरा पसंद भी आ जाए तो पलट के देखना अपनी तौहीन समझते हैं। 

कोई लिफ़्ट माँग ले तो रास्ते भर ये सोचते रहते हैं कि यार बैठा ही लिया होता। 
हम घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर बस यही हिसाब लगाते हुए आते हैं कि लिए गए ऋण की किश्त और घर के ख़र्चे के बाद कुछ सेविंग मुमकिन है क्या ?

अपने लिए नए जूते लेने के लिए हम दस बार सोचते हैं और दोस्तों के साथ पार्टी में उससे दुगने पैसे उड़ा देते हैं। हम इमोशनल होते हैं तो रो देते हैं पर आँसू नहीं गिराते। आँसू सिर्फ़ वहीं गिराते हैं जहाँ मालूम होता है कि सामने वाला आँसू चुन लेगा।

हम अपनी गलतीयों को याद नहीं करना चाहते। 
वाहवाही को हम ज़िंदगी से ज़्यादा सिरियस लेते हैं। 
हम किसी के व्यंग का जवाब उसे नज़रअन्दाज़ करके देते हैं। 
हम झगड़ा तब तक नहीं करते जबतक सामने वाला इतना इम्पोर्टेंट ना हो। 
हमें दूसरों के आगे चुप रहना पसंद है और अपनों के आगे तो हम उसे चुप करा करा के सुनाते हैं।

कोई सम्मन से बात भर कर ले हम उसे सिर चढ़ा लेते हैं और जो कोई फन्ने खाँ बना तो नज़र में .  
मिडिल क्लास लोग हैं। 
हम माता जी के हाथ का बना सुबह का खाना शाम को भी खा लेते हैं और कभी कभी तो अगली सुबह भी । 

प्रेम को हम सीरियासली लेते हैं। 
हम जब प्रेम करते हैं और तो अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं उनपे और बना लेते एक मुकम्मल दुनिया। अपने अपने बजट से। 
मिडिल क्लास आदमी अपनी छोटी छोटी ख़्वाहिशों को बड़े बड़े अरमान के साथ जी लेता है।

गाने की लिरिक्स ना याद हो तो आधा गा के पूरी धुन गुनगुना लेते हैं। 
कभी कभी शैम्पू न मिलने पर साबुन से बाल भी धुल लेते हैं । 
छोटी छोटी ख़ुशियों को पनीर खा के सेलेब्रेट कर लेते हैं। 

मिडिल क्लास आदमी उतना ही सच्चा होता है जितनी निरछल उसकी मुस्कान । 
देखिएगा कभी ।

और अंत में आप सब को मेरा प्रणाम 🙏 
लेख में कुछ अनुचित लगा हो तो क्षमा करिएगा ...

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बुधवार, 4 जुलाई 2018

युवा नायक स्वामी विवेकानंद

 युवा नायक स्वामी विवेकानंद जी 

✍ प्रधान संपादक गौरव सिंह गौतम की कलम से


महज ३९ साल की आयु में दुनिया का दिल जीतकर चले जाना आसान नहीं होता। 
निश्चिततौर पर ऐसा कोई असाधारण व्यक्ति ही कर सकता है। 
असाधारण होना नायक होने का पहला और नैसर्गिक गुण है। नायक प्रभावशाली होता है, 
वह लोगों की भीड़ को अपनी बातों से सम्मोहित कर सकता है। 
नायक अपने तेज से लोगों को अपनी ओर खींच सकता है। 
वह नई राह बनाता है लोगों के चलने के लिए। उसके पास समस्याएं नहीं बल्कि उनके हल होते हैं। 
नायक विचारवान, तर्कशील और तत्काल निर्णय लेने में सक्षम होता है। 
वह साहस, उत्साह और ऊर्जा से लबरेज रहता है। नायक कुशलता से लोगों का नेतृत्व करता है। इसके साथ ही तमाम दूसरे गुण कथनी-करनी में ईमानदार, आकर्षक व्यक्तित्व, न्याय प्रियता, निरपेक्षता, निर्लिप्तता, त्याग, संयम, शुचिता, वीरता, ओज, क्षमाभाव, प्रेम, समन्वयीकरण, प्रबंधन, परोपकार, परहित चिंता, दृढ़ता और इच्छाशक्ति भी नायक को औरों से अलग करते हैं। 
       स्वामी विवेकानंद ने ३९ वर्ष की अल्पायु में नायक के इन सब गुणों का प्रगटीकरण किया। अब विचार करने की बात है कि स्वामी विवेकानंद नायक किसके? स्वामी विवेकानंद यूं तो सबके नायक साबित होते हैं। उनको लेकर कहीं कोई भेद नहीं है। न जाति के आधार पर उन्हें किसी ने बांटा है, न विचारधारा के नाम पर। लिंग और आयुवर्ग के आधार पर भी वे किसी एक के नायक नहीं है। वे तो सबकी बात करते हैं। फिर भी स्वामी विवेकानंद युवाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। दरअसल, स्वामी विवेकानंद के चिंतन में सदैव युवा केन्द्रीय बिन्दु रहा। स्वामी जी कहते थे कि मेरी आशा युवाओं में, इनमें से ही मेरे कार्यकर्ता आएंगे। स्वामी भली-भांति जानते थे कि भारत और हिन्दू धर्म के उत्थान में ओजस्वी और बलशाली युवाओं की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। युवा यदि देश और धर्म से विमुख होगा तो स्थितियां बदतर हो जाएंगी। इसलिए स्वामी जी अकसर युवाओं का आव्हान करते थी कि उठो और अपनी जिम्मेदारी संभालो। जागो युवा साथियो, अपनी कमर कसकर खड़े हो जाओ। भारत मां की सेवा के लिए सामथ्र्य जुटाओ।  
       स्वामी विवेकानंद बेहद आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। उनकी बातों में जादू था। तभी तो ११ सितंबर १८८३ को शिकागो में उनका जादू सिर चढ़कर बोला था। महज कुछ पलों में अपनी बात रखने का मौका स्वामी विवेकानंद को मिला था। इन चंद पलों में ही भारत के विवेक ने अमेरिका और दुनियाभर से जमा लोगों की बीच आनंद की लहर पैदा कर दी। इसके बाद तो धर्मसभा के आयोजकों ने उनका बड़े रोचक तरीके से इस्तेमाल किया। जब किसी के भाषण से श्रोताओं का मन ऊबने लगता और वे जाने को होते तब बीच में मंच पर आकर आयोजक उद्घोषणा करते कि एक भाषण के बाद स्वामी विवेकानंद बोलेंगे, इतना सुनते ही भीड़ वहीं ठिठक जाती। यह जादू आज भी बरकरार है। रामकृष्ण मिशन और विवेकानंद केन्द्र सहित स्वामी जी के विचारों को लेकर काम कर रहे अलग-अलग संगठनों के मुताबिक आज भी स्वामीजी को पढऩे और समझने के लिए युवा लालायित रहते हैं। इन संगठनों से युवा बड़ी संख्या में जुड़कर काम भी कर रहे हैं। दरअसल, युवा स्वामी विवेकानंद को औरों की अपेक्षा अपने अधिक निकट पाते हैं। युवाओं के मन में स्वामीजी की युवा संन्यासी, देशभक्त युवक और क्रांतिकारी प्रणेता की छवि बसी हुई है। स्वामी विवेकानंद भी अकसर अपने भाषणों में आव्हान करते थे कि संसार को बस कुछ सौ साहसी युवतियों-युवकों की जरूरत है। स्वामी जी युवाओं में साहस भी असीम चाहते थे। समुद्र को पी जाने का साहस, समुद्र तल से मोती लेकर आने का साहस, मृत्यु का सामना कर सकने का साहस और पहाड़-सी चुनौतियों को स्वीकार कर सकने का साहस स्वामी जी युवाओं में चाहते थे। स्वामीजी हिन्दू संन्यासी होकर युवाओं से मंदिर में बैठकर माला जपने और देवता के आगे अगरबत्ती लगाने की बात नहीं कहते थे। वे हमेशा युवाओं के मन की बात करते थे, सिर्फ मन की नहीं असल में युवाओं के उत्थान की, राष्ट्र के विकास की और समाज के सुदृढि़करण की बात। उनका तो मानना था कि सबसे पहले हमारे तरुणों को मजबूत बनना चाहिए। धर्म इसके बाद की वस्तु है। युवा शक्तिशाली होगा, नशे-व्यसन से दूर होगा और कर्मशील होगा तो बाकी सब समस्याओं को दूर भगाना आसान होगा। 

स्वामी जी युवाओं को संबोधित करते हैं - 'मेरे मित्रो, शक्तिशाली बनो, मेरी तुम्हें यही सलाह है। तुम गीता के अध्याय की अपेक्षा फुटबाल के द्वारा ही स्वर्ग के अधिक समीप पहुंच सकोगे। ये कड़े शब्द हैं लेकिन मैं उन्हें कहना चाहता हूं क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करता हूं। तुम्हारे स्नायु और मांसपेशियां अधिक मजबूत होने पर तुम गीता अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे।इसलिए जाओ मैदान में फुटबाल खेलो।' 

      अपनी ओजस्वी वाणी और तर्क के आधार पर विश्व में भारत की आध्यात्मिक परंपरा का डंका बजाने वाले 
स्वामी विवेकानंद तरुणों में ही लोकप्रिय नहीं है, वे युवतियों के भी हीरो हैं। इस युवा संन्यासी ने भारत की स्त्री शक्ति की भी चिंता की। उनकी महत्ता प्रतिपादित की। स्त्रियों को उनका अस्तित्व याद दिलाया। फलत: अमेरिका सहित यूरोप की कई स्त्रियां उनकी अनुयायी बन गईं। स्वामीजी के मार्ग पर चल निकलीं। स्त्रियों के साथ उस समय हो रहे दोयम दर्जे के व्यवहार पर विवेकानंद ने रोष प्रकट किया और पुरुष सत्ता को संभलने की चेतावनी दी। स्वामीजी कहते थे कि स्त्रियों की स्थिति में सुधार हुए बिना संसार के कल्याण की कोई संभावना नहीं है। एक पक्षी का केवल एक पंख के सहारे उड़ पाना संभव नहीं है। यहां स्पष्ट कर देना होगा कि स्वामीजी भारत में स्त्रियों की स्थिति को लेकर ही चिंतित नहीं थे वरन् उनकी चिंता दुनियाभर में स्त्रियों के साथ हो रहे अन्याय को लेकर थी। स्वामीजी सीधे स्त्रियों से भी अपेक्षा करते थे कि वे अपने काम स्वयं करें, पुरुषों के भरोसे रहे ही नहीं। उनका स्पष्ट मत था कि स्त्रियों में अवश्य ही यह क्षमता होनी चाहिए कि वे अपनी समस्याएं अपने ढंग से हल कर सकें। उनका यह कार्य न कोई दूसरा कर सकता है और न ही दूसरे को करना चाहिए। स्त्रियों को शिक्षित करने की दिशा में भी स्वामी जी की चिंता स्पष्ट दिखती है। वे जानते थे कि स्त्री शिक्षा के मायने क्या हैं। परिवार और समाज निर्माण की बुनियाद स्त्रियों के हाथ में पुरुषों की अपेक्षा कुछ अधिक रहती है। स्पष्ट है ऐसे में घर में मां और बहन का पढ़ा-लिखा होना कितना जरूरी है। स्वामी विवेकानंद ने अपनी प्रिय शिष्या भगिनी निवेदिता (मार्गरेट नोबल) को भारत में नए सिरे से नारी शिक्षा की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित किया। स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से ही भगिनी निवेदिता ने सारदा बालिका विद्यालय की स्थापना की। साथ ही देशभर में नारी शिक्षा को मजबूत करने के लिए आंदोलन भी चलाया। 
       साहस, उत्साह और ऊर्जा के पुंज स्वामी विवेकानंद के क्रांतिकारी विचार उनके समय से अब तक युवाओं को आत्मविश्वास से भर देते हैं। विवेकानंद का नाम मस्तिष्क में आते ही हृदय स्फूर्ति और उत्साह से भर जाता है। स्वामीजी के ओजस्वी विचार आज भी युवाओं को प्रेरणा देते हैं। 'उठो जागो और तब तक न रुको जब तक मंजिल न प्राप्त हो जाए' स्वामी विवेकानंद का यह वाक्य आज भी दुनियाभर के युवाओं का मार्गदर्शन करने का काम करता है। विद्यार्थी जीवन में तो अधिकतर युवा इस वाक्य को सदैव अपने अध्ययन की मेज के सामने लिखकर ही रखते हैं। युवाओं को स्वामी विवेकानंद अपने नायक तो दिखते ही हैं, मित्र की तरह भी महसूस होते हैं। युवाओं में स्वामी विवेकानंद की लोकप्रियता का कारण है कि उनकी जयंती को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। हालांकि यह भी सच है कि वर्तमान युवा पीढ़ी उन्हें आदर्श जरूर मानती है लेकिन उनके विचारों और सिद्धांतों का पालन करने में बहुत पीछे है। जरूरत इस बात की है युवा आगे आएं और अपने नायक को अपने जीवन में उतारें। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि भारत को फिर से विश्वगुरु कोई बना सकता है तो वह है भारत की युवाशक्ति। स्वामी विवेकानंद के स्वप्न को साकार करने की महती जिम्मेदारी भारत की युवा पीढ़ी पर है, वे ऐसा कर सकते हैं, बस उन्हें जरूरत है अपने हीरो विवेकानंद के बताए मार्ग पर आगे बढऩे की। भारत की युवा शक्ति को जागृत करने और नई सोच देने के लिए विवेकानंद बहुत कुछ कह गए हैं। आज के युवा उसे पढ़ें, समझें और तब तक नहीं रुकें, जब तक स्वामी जी के स्वप्न साकार नहीं हो जाएं। 
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रविवार, 17 जून 2018

#आज_विशेष #पितृ_दिवस / 'पिता दिवस' / 'फ़ादर्स डे'


Author ✍ Gaurav Singh Gautam 

#पितृ_दिवस / 'पिता दिवस' / 'फ़ादर्स डे' पिताओं के सम्मान में एक व्यापक रूप से मनाया जाने वाला पर्व है, 

जिसमें पितृत्व, पितृत्व-बंधन तथा समाज में पिताओं के प्रभाव को समारोह पूर्वक मनाया जाता है। 
विश्व के अधिकतर देशों में इसे जून के तीसरे रविवार को मनाया जाता है। 
कुछ देशों में यह अलग-अलग दिनों में मनाया जाता है। 
यह माता के सम्मान हेतु मनाये जाने वाले मातृ दिवस का पूरक है। 
पिता पिता एक ऐसा शब्द जिसके बिना किसी के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। 
एक ऐसा पवित्र रिश्ता जिसकी तुलना किसी और रिश्ते से नहीं हो सकती। 
बचपन में जब कोई बच्चा चलना सीखता है तो सबसे पहले अपने पिता की उंगली थामता है। 
नन्हा सा बच्चा पिता की उँगली थामे और उसकी बाँहों में रहकर बहुत सुकून पाता है। 
बोलने के साथ ही बच्चे जिद करना शुरू कर देते है और पिता उनकी सभी जिदों को पूरा करते हैं। 
बचपन में चॉकलेट, खिलौने दिलाने से लेकर युवावर्ग तक बाइक, कार, लैपटॉप और उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने तक आपकी सभी माँगों को वो पूरा करते रहते हैं लेकिन एक समय ऐसा आता है जब भागदौड़ भरी इस ज़िंदगी में बच्चों के पास अपने पिता के लिए समय नहीं मिल पाता है। 

इसी को ध्यान में रखकर पितृ दिवस मनाने की परंपरा का आरम्भ हुआ

इतिहास पितृ दिवस की शुरुआत बीसवीं सदी के प्रारंभ में पिता धर्म तथा पुरुषों द्वारा परवरिश का सम्मान करने के लिये मातृ दिवस के पूरक उत्सव के रूप में हुई। 
यह हमारे पूर्वजों की स्मृति और उनके सम्मान में भी मनाया जाता है। 
पितृ दिवस को विश्व में विभिन तारीखों पर मनाते है- जिसमें उपहार देना, पिता के लिये विशेष भोज एवं पारिवारिक गतिविधियाँ शामिल हैं। 

आम धारणा के विपरीत, वास्तव में पितृ दिवस सबसे पहले पश्चिम वर्जीनिया के फेयरमोंट में 5 जुलाई, 1908 को मनाया गया था। 6 दिसम्बर, 1907 को मोनोंगाह, पश्चिम वर्जीनिया में एक खान दुर्घटना में मारे गए 210 पिताओं के सम्मान में इस विशेष दिवस का आयोजन श्रीमती ग्रेस गोल्डन क्लेटन ने किया था। 
'प्रथम फ़ादर्स डे चर्च' आज भी सेन्ट्रल यूनाइटेड मेथोडिस्ट चर्च के नाम से फ़ेयरमोंट में मौजूद है पौराणिक मान्यता हमारे ग्रन्थों में माता-पिता और गुरु तीनों को ही देवता माना गया है। जिस स्थूल जगत् में हम हैं, 
उसमें वही हमारे वास्तविक देवता हैं। 
इनकी सेवा और भक्ति में कसर रह जाए तो फिर ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं। 
और अगर हमने इनकी सेवा पूरे मन से की तो भगवान स्वयं कच्चे धागे से बंधे भक्त के पीछे-पीछे चल पड़ते हैं। 
आखिर श्रवण कुमार में ऐसा क्या ख़ास था कि किसी भी भगवान से उनकी अहमियत कम नहीं है। माता-पिता की भक्ति और सेवा ने उसे भक्त प्रह्लाद और ध्रुव के बराबर का आसन दिलाया है। 
पिता चाहे कैसे भी वचन बोले, कैसा भी बर्ताव करे, संतान को उनके प्रति श्रद्धा और विनम्रता से आज्ञाकारी होना ही चाहिए। केवल इतना सूत्र भर साध लेने से हम उस ईश्वर के राज्य के अधिकारी बन जाते हैं, जिसे पाने के लिए जाने कितने तपस्वियों ने शरीर गलाया, बरसों साधना की। 




कन्धे पर माता-पिता को लेकर तीर्थ कराने निकला श्रवण जब उनकी प्यास बुझने के लिए पानी भरते हुए राजा दशरथ का एक तीर लग जाने से प्राण त्यागता है, तब यही कहता है- 
"मेरे माता-पिता प्यासे हैं, आप उन्हें जाकर पानी पिला दें।" प्राण त्यागते हुए भी जिसे अपने माता-पिता का ध्यान रहे, वह संतान उस युग में ही नहीं, इस युग में भी धन्य है। 
उसे किसी काल की परिधि में नहीं बांध सकते।

आप सब को आत्म गौरव न्यूज़.कॉम की ओर से पिता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ..

जय सिया राम 🚩🚩

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गुरुवार, 15 मार्च 2018

लघु - कथा " प्रेरणा का स्रोत "


✍ गौरव सिंह गौतम (संपादक)

#दोस्तों ,जिंदगी है तो संघर्ष हैं,तनाव है,काम का दबाब है, ख़ुशी है,डर है !लेकिन अच्छी बात यह है कि ये सभी स्थायी नहीं हैं!समय रूपी नदी के प्रवाह में से सब प्रवाहमान हैं!कोई भी परिस्थिति चाहे ख़ुशी की हो या ग़म की, कभी स्थाई नहीं होती ,समय के अविरल प्रवाह में विलीन हो जाती है!
ऐसा अधिकतर होता है की जीवन की यात्रा के दौरान हम अपने आप को कई बार दुःख ,तनाव,चिंता,डर,हताशा,निराशा,भय,रोग इत्यादि के मकड़जाल में फंसा हुआ पाते हैं  हम तत्कालिक परिस्थितियों के इतने वशीभूत हो जाते हैं  कि दूर-दूर तक देखने पर भी हमें कोई प्रकाश की किरण मात्र भी दिखाई नहीं देती , दूर से चींटी की तरह महसूस होने वाली परेशानी हमारे नजदीक आते-आते हाथी के जैसा रूप धारण कर लेती है  और हम उसकी विशालता और भयावहता के आगे समर्पण कर परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी हो जाने देते हैं,वो परिस्थिति हमारे पूरे वजूद को हिला डालती है ,हमें हताशा,निराशा के भंवर में उलझा जाती है…एक-एक क्षण पहाड़ सा प्रतीत होता है और हममे से ज्यादातर लोग आशा की कोई  किरण ना देख पाने के कारण  हताश होकर परिस्थिति के आगे हथियार डाल देते हैं!
अगर आप किसी अनजान,निर्जन रेगिस्तान मे फँस जाएँ तो उससे निकलने का एक ही उपाए है ,बस -चलते रहें!   अगर आप नदी के बीच जाकर हाथ पैर नहीं चलाएँगे तो निश्चित ही डूब जाएंगे !  जीवन मे कभी ऐसा क्षण भी आता है, जब लगता है की बस अब कुछ भी बाकी नहीं है ,ऐसी परिस्थिति मे अपने  आत्मविश्वास और साहस के साथ सिर्फ डटे रहें क्योंकि-
“हर चीज का हल होता है,आज नहीं तो कल होता है|”
एक बार एक राजा की सेवा से प्रसन्न होकर एक साधू नें उसे एक ताबीज दिया और कहा की राजन  इसे अपने गले मे डाल लो और जिंदगी में कभी ऐसी परिस्थिति आये की जब तुम्हे लगे की बस अब तो सब ख़तम होने वाला है ,परेशानी के भंवर मे अपने को फंसा पाओ ,कोई प्रकाश की किरण नजर ना आ रही हो ,हर तरफ निराशा और हताशा हो तब तुम इस ताबीज को खोल कर इसमें रखे कागज़ को पढ़ना ,उससे पहले नहीं!
राजा ने वह ताबीज अपने गले मे पहन लिया !एक बार राजा अपने सैनिकों के साथ शिकार करने घने जंगल मे गया!  एक शेर का पीछा करते करते राजा अपने सैनिकों से अलग हो गया और दुश्मन राजा की सीमा मे प्रवेश कर गया,घना जंगल और सांझ का समय ,  तभी कुछ दुश्मन सैनिकों के घोड़ों की टापों की आवाज राजा को आई और उसने भी अपने घोड़े को एड लगाई,  राजा आगे आगे दुश्मन सैनिक पीछे पीछे!   बहुत दूर तक भागने पर भी राजा उन सैनिकों से पीछा नहीं छुडा पाया !  भूख  प्यास से बेहाल राजा को तभी घने पेड़ों के बीच मे एक गुफा सी दिखी ,उसने तुरंत स्वयं और घोड़े को उस गुफा की आड़ मे छुपा लिया !  और सांस रोक कर बैठ गया , दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज धीरे धीरे पास आने लगी !  दुश्मनों से घिरे हुए अकेले राजा को अपना अंत नजर आने लगा ,उसे लगा की बस कुछ ही क्षणों में दुश्मन उसे पकड़ कर मौत के घाट उतार देंगे !  वो जिंदगी से निराश हो ही गया था , की उसका हाथ अपने ताबीज पर गया और उसे साधू की बात याद आ गई !उसने तुरंत ताबीज को खोल कर कागज को बाहर निकाला और पढ़ा !   उस पर्ची पर लिखा था — #यह_भी_कट_जाएगा “
राजा को अचानक  ही जैसे घोर अन्धकार मे एक  ज्योति की किरण दिखी , डूबते को जैसे कोई सहारा मिला !  उसे अचानक अपनी आत्मा मे एक अकथनीय शान्ति का अनुभव हुआ !  उसे लगा की सचमुच यह भयावह समय भी कट ही जाएगा ,फिर मे क्यों चिंतित होऊं !  अपने प्रभु और अपने पर विश्वासरख उसने स्वयं से कहा की हाँ ,यह भी कट जाएगा !
और हुआ भी यही ,दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज पास आते आते दूर जाने लगी ,कुछ समय बाद वहां शांति छा गई !  राजा रात मे गुफा से निकला और किसी तरह अपने राज्य मे वापस आ गया !
दोस्तों,यह सिर्फ किसी राजा की कहानी नहीं है यह हम सब की कहानी है !हम सभी परिस्थिति,काम ,तनाव के दवाव में इतने जकड जाते हैं की हमे कुछ सूझता नहीं है ,हमारा डर हम पर हावी होने लगता है ,कोई रास्ता ,समाधान दूर दूर तक नजर नहीं आता ,लगने लगता है की बस, अब सब ख़तम ,है ना?
जब ऐसा हो तो २ मिनट शांति से बैठिए ,थोड़ी गहरी गहरी साँसे लीजिये !  अपने आराध्य को याद कीजिये और स्वयं से जोर से कहिये –यह भी कट जाएगा !   आप देखिएगा एकदम से जादू सा महसूस होगा , और आप उस परिस्थिति से उबरने की शक्ति अपने अन्दर महसूस करेंगे
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लघु - कथा महान वैज्ञानिक " स्टीफन विलियम हॉकिंग "



#स्टीफन_विलियम_हॉकिंग 

(८ जनवरी १९४२ – १४ मार्च २०१८), एक विश्व प्रसिद्ध ब्रितानी भौतिक विज्ञानी,ब्रह्माण्ड विज्ञानी, लेखक और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में सैद्धांतिक ब्रह्मांड विज्ञान केन्द्र (Centre for Theoretical Cosmology) के शोध निर्देशक थे।

#प्रारंभिक_जीवन

स्टीफ़न हॉकिंग का जन्म 8 जनवरी 1942 को फ्रेंक और इसाबेल हॉकिंग के घर में हुआ। परिवार वित्तीय बाधाओं के बावजूद, माता पिता दोनों की शिक्षा ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय में हुई जहाँ फ्रेंक ने आयुर्विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की और इसाबेल ने दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र का अध्ययन किया।वो दोनों द्वितीय विश्व युद्ध के आरम्भ होने के तुरन्त बाद एक चिकित्सा अनुसंधान संस्थान में मिले जहाँ इसाबेल सचिव के रूप में कार्यरत थी और फ्रेंक चिकित्सा अनुसंधानकर्ता के रूप में कार्यरत थे।हॉकिंग की दो छोटी बहन, फिलिप्पा और मैरी के अलावा एक दत्तक भाई एडवर्ड भी है।

#स्नातक_वर्ष

एक डॉक्टरेट छात्र के रूप में हॉकिंग का पहला वर्ष मुश्किल था। उन्हें शुरू में निराश किया गया था कि उन्हें आधुनिक खगोल विज्ञान के संस्थापकों में से एक डेनिस विलियम कैसामा नियुक्त किया गया था, जो कि विख्यात खगोलशास्त्री फ्रेड होल के पर्यवेक्षक के रूप में था, और उन्होंने गणित में उनके प्रशिक्षण में काम करने के लिए अपर्याप्त पाया सामान्य सापेक्षता और ब्रह्मांड विज्ञान। मोटर न्यूरॉन रोग के साथ निदान होने के बाद, हॉकिंग अवसाद में गिर गया - हालांकि उनके डॉक्टरों ने सलाह दी कि वह अपनी पढ़ाई जारी रखता है, तो उन्होंने महसूस किया कि थोड़ी सी बात है। हालांकि, डॉक्टर की भविष्यवाणी की तुलना में उसकी बीमारी अधिक धीरे धीरे आगे बढ़ रही है। हालांकि हॉकिंग को असमर्थित रूप से घूमने में कठिनाई होती थी, और उनका भाषण लगभग अपुष्ट था, प्रारंभिक निदान यह था कि वह केवल दो साल तक जीने के लिए निराधार साबित हुआ। कैसामा के प्रोत्साहन के साथ, वह अपने काम पर लौट आए। जून 1 9 64 में व्याख्यान में हॉकिंग ने फ्रेड होल और उनके छात्र जयंत नारलीकर के काम को सार्वजनिक रूप से चुनौती दी, जब प्रतिभा और चमक के लिए प्रतिष्ठा विकसित करना शुरू किया।

जब हॉकिंग ने अपने स्नातक अध्ययन शुरू किया, तो भौतिकी समुदाय में ब्रह्मांड के निर्माण की प्रचलित सिद्धांतों के बारे में बहुत बहस हुई: बिग बैंग सिद्धांत और स्थिर राज्य सिद्धांत। ब्लैक होल्स के केंद्र में स्पेसटाइम विलक्षणता के रोजर पेनरोस के प्रमेय से प्रेरित होकर, हॉकिंग ने पूरे ब्रह्मांडको उसी सोच को लागू किया; और, 1965 के दौरान उन्होंने इस विषय पर अपनी थीसिस लिखी।1966 में हॉकिंग की थीसिस को मंजूरी दे दी गई। अन्य सकारात्मक घटनाक्रम भी थे: हन्किंग ने गोन्विले और कैयूस कॉलेज में एक रिसर्च फेलोशिप प्राप्त की; उन्होंने मार्च 1966 में सामान्य सापेक्षता और ब्रह्माण्ड विज्ञान में विशेषज्ञता वाले गणित और सैद्धांतिक भौतिकी में पीएचडी की डिग्री प्राप्त की; और उनका निबंध शीर्षक "अकेले और स्पेस-टाइम की ज्यामिति" ने पेनोरोज़ द्वारा एक के साथ शीर्ष सम्मान के साथ उस वर्ष के प्रतिष्ठित एडम्स पुरस्कार जीत लिया।

#कार्य
स्टीफ़न हॉकिंग ने ब्लैक होल और बिग बैंग सिद्धांत को समझने में अहम योगदान दिया है। उनके पास 12 मानद डिग्रियाँ हैं और अमरीका का सबसे उच्च नागरिक सम्मान उन्हें दिया गया है।

“मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की है कि मैंने ब्रह्माण्ड को समझने में अपनी भूमिका निभाई। इसके रहस्य लोगों के खोले और इस पर किये गये शोध में अपना योगदान दे पाया। मुझे गर्व होता है जब लोगों की भीड़ मेरे काम को जानना चाहती है।”
#स्टीफ़न हॉकिंग


इच्छामृत्यु पर विचार

“लगभग सभी मांसपेशियों से मेरा नियंत्रण खो चुका है और अब मैं अपने गाल की मांसपेशी के जरिए, अपने चश्मे पर लगे सेंसर को कम्प्यूटर से जोड़कर ही बातचीत करता हूँ।”
#स्टीफ़न हॉकिंग

#मृत्यु

एक परिवार के प्रवक्ता के मुताबिक, 14 मार्च 2018 की सुबह सुबह अपने घर कैंब्रिज में हॉकिंग की मृत्यु हो गई थी। उनके परिवार ने उनके दुःख व्यक्त करने वाले एक बयान जारी किया था
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रविवार, 4 फ़रवरी 2018

अमीर न हुए तो क्या हुआ , दिल के अमीर तो हैं।

लघु कथा :- ✍गौरव सिंह गौतम (युवा पत्रकार)

यूपी / फतेहपुर  - ये पिक आप को थोड़ा अजीब लग रही होगी , की ये किन बच्चों और युवक की हैं।

पिक में जो ये दो बच्चे और युवक दिख रहे आइये उनसे आपका भी परिचय करवा ही देते हैं।
ये सज्जन व्यक्ति हैं राजू शिवहरे जी जो कस्बें असोथर में जरौली,कौहन रोड़ पर एक चाट समोसे की छोटी सी दुकान पिछले कई वर्षों से चला रहे हैं।
अगर देखा जाय तो कस्बे में सर्वाधिक लोकप्रिय चाट की दुकान हैं ,लोकप्रिय होने की विशेषता यह हैं कि राजू भाई व उनकी धर्मपत्नी जी का सज्जन मृदुभाषी स्वभाव व उनकी चाट समोसे खिलाने पर साफ सफ़ाई व स्वच्छता।
कस्बे का अधिकतर युवा वर्ग शाम होते ही राजू भाई की दुकान पर आपको चाट खाते हुए दिख जाएगां , मैं भी कभी कभार चला जाता हूँ ।
अभी पिछले कुछ दिनों पहले गया तो देखा कि लगभग पिछले छह माह से जो लड़का (उमेश) जिसकी उम्र लगभग 15 वर्ष होगी जो कि राजू भाई की दुकान में शाम को भाई का थोड़ा सा हाथ बटा देता था ।
उसके साथ एक और लगभग आठ दस साल का लड़का उसको भैया भैया कर रहा था ।
मैंने भी उत्सुकता वश पूंछ लिया की ये अपने साथ किसको ले आया ये कौन हैं जो तुझे  भैया भैया कर रहा हैं ।
उसने बताया कि मेरा छोटा भाई हैं , मुझे बहुत बुरा लगा कि अपना तो कार्य कर ही रहा हैं और साथ मे अपने छोटे भाई को यहीं पर ले आया , थोड़ी नाराजगी मैंने राजू भाई से भी जताई कि ये ठीक नहीं हैं भैया ये छोटा लड़का भी रहेगा क्या आपके पास इसको इसके गांव भेज दो इसके मां ,पिता के पास यहां पर क्या करेगा ।
उस बड़े लड़के उमेश को भी मैं डांटने फटकारने लगा कि अपना तो भविष्य बर्बाद ही किए हैं और अपने भाई का भी कर रहा हैं ।
मेरे डांटने पर बड़े लड़के की आंखे ड़बड़बा आयी तो मैंने पूंछा की अरे अरे क्या हो गया , रोने क्यो लगा बात क्या हैं बता तो सही ,
फिर जो उसने बताया उसकी बात सुनकर मेरी नजरों में राजू भाई कि इज्जत और बढ़ गई ।
उसकी कहानी सुनकर मेरा भी ह्रदय द्रवित हो गया ।
कुछ व्यक्तिगत कारणों की वजह से बच्चों के पिता का नाम मैं नही बताऊंगा पर इन बेबस बच्चों की मजबूरी जरूर बताऊंगा , ये बच्चे हैं किशनपुर थानाक्षेत्र के थुरयानीं गांव के रहने वाले हैं , इनका पिता आज से लगभग पांच या दस वर्ष पहले गांव के ही 24 से अधिक लूट , हत्या समेत आदि संगीन मामलों के हिस्ट्रीशीटर बदमाश कल्लू निषाद की हत्या के आरोप पर जेल में सजा काट रहा हैं ।
इन बेबस बेसहारा बच्चों के पिता का परिवार अत्यंत निर्धन वर्ग से संबंधित हैं ।
उमेश के छोटे भाई के जन्म के कुछ माह बाद ही इन बच्चों की मां टीबी की गंभीर बीमारी से ग्रसित होने व निर्धनता के कारण समुचित उपचार न करवा पाने पर इन बच्चों को भगवान भरोसे छोड़कर स्वर्ग सिधार गई।
पिता जेल में और मां की असमय मृत्यु से व निर्धनता के कारण बच्चों पर दुखो का पहाड़ टूट गया था।
कुछ दिनों तक परिवारिक जनों ने इन बच्चों को भोजन दिया ,पर कुछ दिन बाद ही पारिवारिक जनो को भी दो टाइम का भोजन देने पर ये बच्चे बोझ लगने लगें।
उमेश ने 10 वर्ष की उम्र में ही गांव में छोटे भाई को छोड़कर शहर फतेहपुर व खागा में होटलों आदि में छोटा मोटा कार्य कर अपना पेट पालता रहा , व छोटे भाई को भी बीच बीच में गांव देख आता था।
लगभग छह माह पहले वह असोथर कस्बें आ गया और राजू भाई के यहां छोटा मोटा कार्य कर राजू भाई के काम में उनका भी हांथ बंटा देता था ।
भाई के परिवार घर के साथ एकदम घुलमिल जाने पर उसने अपने छोटे भाई के बारे में भी राजू भाई से बताया कि भैया मेरे छोटे भाई को भी गांव से लिवा लाइए , गांव में उस छोटे भाई को भोजन मिलने जाने लाले थे ।
मानवता के नाते दिसंबर में कड़ाके की ठंड के समय राजू भाई उसके छोटे भाई को भी अपने घर ले आये हैं ।
उसको नए स्वेटर ,कपड़े दिलाने के साथ साथ उमेश को प्रतिमाह 1500 से 2000 रुपए देते हैं।
राजू भाई के लड़के तो नही हैं पर दो छोटी बच्चिया हैं 
वह उमेश व छोटू दोनों भाईयों को अपने घर के सदस्यों की तरह ही रख रहे हैं।
छोटे भाई का पास ही के विद्यालय में दाखिला भी करवा दिया हैं।
मुझे इन बेबस बेसहारा बच्चों की कहानी सुनकर बड़ा दुख हुआ , पर प्रशन्नता भी हुई कि चलिए राजू भाई जैसे लोग मानवता की मिशाल बनकर इन बच्चों का पेट तो पाल ही रहें हैं।
मैंने इन बेबस बच्चों की कहानी इसलिए लिख डाली की लोगो का नजरिया बदल सके ।

मेरे विचार से केवल दिखावे मात्र के लिए गांवो और जिलों को गोद लेने वाले नेताओं व शासन के उच्चाधिकारियों को भी इन जैसे बेसहारा गरीब बच्चों को भी गोद लेने के बारे सोचना चाहिए।


हमारे देश में न जाने कितने ऐसे उमेश और छोटू बेबस मजबूरी की वजह से होटलों और ढाबो में चाय पिलाते व बर्तन धोते हुए आपको दिख जाएंगे ।

और हां अंत मे विनम्र निवेदन हैं पोस्ट अच्छी लगी हो तो शेयर जरूर करें 🙏😊
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