सोमवार, 25 मार्च 2019

शहीद भगत सिंह और पत्रकार पुरोधा शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी जी के आपसी सम्बन्धों का इतिहास - अजीत सिंह चौहान

शहीद सरदार भगत सिंह को 23मार्च 1931 अंग्रेजों ने फाँसी दी। 
इस फांसी के विरोध में जवाहरलाल नेहरू देशभर में बन्द बुलाया, बन्द के दौरान कानपुर में दंगा हुआ जिसमें 25मार्च 1931 को प्रताप संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी जी शहीद हुए। 
दोनों शहीदों के आपसी सम्बन्धों का इतिहास 
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✍ अजीत सिंह चौहान


( लेखक अजीत प्रताप सिंह चौहान की गणेश शंकर विद्यार्थी जी पर " चंपारण सत्याग्रह का गणेश " नामक पुस्तक प्रतिष्ठित लोकहित प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी है 
 लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) के शोध छात्र हैं तथा व इनकी स्नातक की शिक्षा प्रयागराज स्थित इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई है ,व लेखक फतेहपुर जिले के खागा क्षेत्र के रहने वाले हैं )

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जब सरदार भगत सिंह कॉलेज में ही पढ़ रहे थे तभी पिता सरदार किशन सिंह और घर वाले शादी का प्रबंध करने लगे। पंजाब केसरी रणजीत सिंह के वंशज मानावाला गाँव के एक खाते-पीते परिवार की एक कन्या से विवाह भी तय हो गया, यही नहीं रस्म अदायगी का दिन भी निश्चित हो गया। किशन सिंह पुत्र को तिलक जैसा क्रांतिकारी बनाना चाहते थे जो कांग्रेस से जुड़कर आजादी के सार्वजनिक आंदोलन को भारत के आंगन में उतारे। वह नही चाहते थे कि भगत सिंह फांसी पर झूले। वे अपने छोटे भाई अजीतसिंह, अपने मित्र रासबिहारी बोस और अपने पुत्रवत प्रिय करतार सिंह सराभा के कार्यों का परिणाम देख चुके थे। हालांकि उन्होंने गदर पार्टी के काम में आर्थिक सहायता दी थी, पर सराभा से साफ कह दिया था कि तुम्हारा गदर आंदोलन जिस खुले रूप में संगठित किया जा रहा है, वह भारत में सफल नहीं हो सकता क्योंकि यह अमेरिका नहीं है। चाचा अजीत सिंह के जीवन से प्रेरित भगतसिंह विवाह नहीं करना चाहते थे, उन्होंने अपनी चाचियों का हाल देखा था। पर दिल न दुखे इस ख्याल से बाबा के पूछने पर चुप्पी साध लेते थे मगर अपने पिता किशन सिंह को यह बात बहुत ही साफ ढंग से कह दिया था कि वह शादी नही करना चाहते। किसी ने इनकी एक न सुनी, अकस्मात एक दिन घर वालों ने देखा भगत सिंह गायब है, किशन सिंह को घर की अपनी मेज की दराज़ में एक पत्र, भगत सिंह का मिला।  जिसमें उन्होंने अपने घर छोड़ने का कारण बताया था। 
पत्र-

        पूज्य पिताजी
        नमस्ते।
        
        मेरी जिंदगी मकसदे आला (उच्च उद्देश्य) यानि आजादी-ए-हिंद के असूल (सिद्धांत) के लिए वक्फ़ (दान) हो चुकी है। इसलिए मेरी जिंदगी में आराम और दुनियावी खाहशात (सांसारिक इच्छाएं) बायसे कशिश (आकर्षक) नहीं है।
        आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था, तो बापूजी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमत-ए-वतन (देश सेवा) के लिए वक्फ़ कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा कर रहा हूँ। 
उम्मीद है आप मुझे माफ फरमाएंगे।
                                             
                                                       आपका ताबेदार
                                                           भगत सिंह

शचीन्द्रनाथ सान्याल ने अपनी पुस्तक 'बंदी जीवन' में लिखा कि "इस दौरान भगत सिंह से उनका संपर्क था, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के रूप में इस पार्टी में पंजाब के युवाओं को अपने संगठन में शामिल करने के प्रयास में सान्याल भगत सिंह को भी शामिल करना चाहते थे - उन्हें जब भगत सिंह ने बताया कि घर वाले उनकी शादी करने पर तुले हुए हैं तो उन्होंने फौरन उनको लाहौर छोड़कर कानपुर चले जाने को कहा।" 
भगत सिंह क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से मिलने तथा सहायता प्राप्त करने जापान जाना चाहते थे, इसी उद्देश्य से वह लाहौर से कानपुर पहुंचे, और कानपुर में भगत सिंह रामनारायण बाजार में रहते थे। और अख़बार बेचकर अपने खाने-पीने का इंतजाम  करते थे। यह बाजार बंगाली लोगों का गढ़ था इतने बंगालियों के बीच में एक सिख का रहना किसी के भी संदेह का कारण बन सकता था। पुलिस के कुछ सिपाही भी उनके मकान के आस-पास टोह लेते दिखाई दिए थे। ऐसे में भगत सिंह को जगह बदलने की आवश्यकता थी। जल्द ही उन्हें भी प्रताप प्रेस के विषय में पता चल गया जो देशभक्त नवयुवकों के लिए अपना घर सा था। 'प्रताप' संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी के पास जो पहुंचता उसे यही अनुभव होता कि विद्यार्थीजी सबसे अधिक मुझ पर ही विश्वास करते हैं और मेरे नजदीक है। भगत सिंह ने विद्यार्थी जी से भेंट की, अनजान युवक ने देश सेवा करने का अपना दृढ़ निश्चय प्रकट किया, और जीवन निर्वाह के लिए कुछ काम चाहा। सहायता या दान लेने से साफ इंकार कर दिया। विद्यार्थीजी ने युवक में, प्रतिभा, आत्मविश्वास और एक अजीब धुन देखी, उन्होंने उसे प्रेस में काम दिया था, प्रताप प्रेस में भगत सिंह ने अपना परिचय  'बलवंत सिंह' दिया था।
 कानपुर उन दिनों उत्तर भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के सूत्र संचालन का केंद्र था। अनुशीलन समिति के एक प्रमुख संगठन कर्ता के रूप में श्री योगेश चटर्जी 'राय महाशय' के नाम से संगठन कर रहे थे। प्रांत में शचीन्द्रनाथजी सन्याल ने अपना संगठन शुरू कर दिया था तथा कुछ अन्य लोग भी स्थान-स्थान पर अपने छोटे-छोटे गुट बनाने लगे थे। पर कुछ दिनों बाद सब लोग "हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन" नाम की संस्था के नीचे एकत्र होकर काम करने लगे। राय महाशय कानपुर के कुरसवां में एक मकान लेकर रहने लगे, भगत सिंह इन्हीं दिनों कानपुर आए और यहां उनका सम्बंध इसी क्रांतिकारी संस्था से हो गया।  क्रांतिवीर चन्द्रशेखर 'आजाद'  से भगत सिंह का परिचय प्रताप प्रेस में ही इसी दौरान विद्यार्थीजी ने करवाया था। यह समय भगत सिंह के जीवन के लिए निर्णायक बना, इसी समय से वह भारत की एक सुसंगठित क्रांतिकारी संस्था के सदस्य बने और जो आगे चलकर भारतीय क्रांति के इतिहास का एक अध्याय बना।
'प्रताप' में भगत सिंह की स्थायी रूप से नियुक्ति नहीं हुई। आवश्यकता के अनुसार खर्च मिल जाता था, पर यह रकम किसी भी दशा में 20आना माहवारी से अधिक नहीं पहुंची। उन्हीं दिनों बब्बर अकालीयों के खून से अंग्रेजों ने अपने हाथ लाल किए थे। होली के त्योहार के दिन थे। 'प्रताप' साप्ताहिक में "खून की होली" शीर्षक से छपा लेख सरदार भगत सिंह का लिखा हुआ था। 'प्रताप' की आर्थिक दशा स्वयं ही खराब थी। सरकार उसे किसी भी तरह बंद कर देना चाहती थी। तीन बार उसकी जमानत ज़ब्त की जा चुकी थी। रायबरेली में हत्याकांड करने वाले वीरपाल की मुख़ालफ़त करने और किसानों का पक्ष लेने के कारण मानहानि का मुकदमा चला। विद्यार्थीजी को हजारों रुपए जनता से लेकर मुकदमें में फूंकना पड़ा। जेल भुगतनी पड़ी। दैनिक प्रताप का संस्करण बन्द करना पड़ा। दशा यहां तक बिगड़ी कि डाक्टरों ने स्वयं विद्यार्थीजी को स्वास्थ्य खराब हो जाने की वजह से पहाड़ में जाने की सलाह दी थी, पर धन की कमी के कारण वे पहाड़ न जाकर फूलबाग में बैठकर अपना काम करते थे।
कानपुर में भगत सिंह का परिचय अन्य सदस्यों से हुआ -  जिसमें बटुकेश्वर दत्त के अतिरिक्त सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है।
बटुकेश्वर दत्त ने भगत सिंह को बांग्ला भाषा में पारंगत किया था। 1924 में भयानक भरी गंगा में जीवन की पर्वाह न करते हुए अपने अन्य साथियों के साथ नजदीकी गांव में रहने वाले किसानों को बचाने और उन्हें सहायता पहुंचाने का काम किया।
 विद्यार्थीजी ने अलीगढ़ जिले के शादीपुर गाँव के नेशनल स्कूल में भगत सिंह को हेडमास्टर बनाकर भेजने का निश्चय किया और, रहने की व्यवस्था वहां के स्थानीय नेता ठाकुर टोल सिंह के घर कर दी गई। इसी दौरान भगत सिंह के पारिवारिक मित्र रामचन्दर को नेशनल कॉलेज में भगत सिंह के सहपाठी रहे जयदेव गुप्ता का पत्र मिला। पत्र में जयदेव गुप्ता ने रामचन्दर को अपने साथ कानपुर चलने के लिए राजी किया। दोनों कानपुर पहुंचे और विद्यार्थी जी से मिले। वरिंदर संधू के अनुसार "तब तक विद्यार्थीजी को यह खबर नहीं थी कि उनके अखबार में काम करने वाला 'बलवंत' वास्तव में क्रांतिकारी सरदार अजीत सिंह का भतीजा और सरदार किशन सिंह का पुत्र भगत सिंह है। भगत सिंह के दोनों मित्रों ने विद्यार्थीजी को भगत सिंह के विषय में व दादी की गंभीर बीमारी और पोते से मिलने की इच्छा के बारे में बताया।" जयदेव के अनुसार भगत सिंह छुप रहे थे और उन दोनों (उन्हें और रामचन्दर) से नहीं मिले। इसलिए इन दोनों ने विद्यार्थीजी के पास भगत सिंह के लिए उनकी दादी की बीमारी का संदेश छोड़ा और साथ में यह आश्वासन भी था कि लौटने पर कोई उनसे शादी के लिए जिद नहीं करेगा। दोनों लाहौर लौटकर किशन सिंह से आग्रह किया कि वह अपने मित्र मौलाना हसरत मोहानी को पत्र लिखे जिसमें भगत सिंह से साफ-साफ वायदा किया गया हो कि उनसे शादी के लिए नहीं कहा जाएगा। मौलाना हसरत मोहानी ने भी विद्यार्थीजी से आग्रह किया कि वह भगत सिंह को घर वापसी के लिए राजी करें। इससे पहले किशन सिंह ने 'वंदेमातरम' समाचार पत्र में विज्ञापन छपवाया था कि "भगत सिंह, जहां भी हों, लौट आएं।"  लाहौर लौटने से पहले भगत सिंह कानपुर में अगस्त-सितंबर 1923 से अप्रैल 1924 के मध्य लगभग छः माह रहे।


सरदार भगत सिंह और गणेश शंकर विद्यार्थी जी की शहादत के बीच में  दो दिनों का अंतर था। हिंदी पत्रकारिता के भीष्म की  प्रायोजित हत्या के लिए औपनिवेशिक अंग्रेजी सत्ता ने भगत सिंह की शहादत को ही ढाल बनाया। दरअसल कानपुर के जिस सांप्रदायिक दंगे में विद्यार्थीजी शहीद हुए, वह दंगा उस दौरान भड़काया गया जब कानपुर सहित देश के अनेक बड़े शहरों में गांधी-इरविन समझौता के तहत सरदार भगत सिंह को जेल से छोड़ने की जगह फांसी देने के विरोध में बंद का आवाहन किया  गया था। दोनों शहीदों की पहली मुलाकात शहादत के लगभग सात बरस पहले कानपुर में हुई थी। जब भगत सिंह विवाह से बचने के लिए घर छोड़कर कानपुर आए थे और प्रताप साप्ताहिक में बलवंतसिंह के नाम से काम किया और प्रताप प्रेस में रुके भी।
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1916 लखनऊ अखिल भारतीय कांग्रेस अधिवेशन के बाद महात्मा गांधी एक दिन के लिए 'प्रताप प्रेस' कार्यालय पर रुके, जहां पर उन्होंने विद्यार्थीजी को कांग्रेस से जुड़ने और देश की राजनीति में सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया। इसके बाद विद्यार्थीजी लगातार कांग्रेस में सक्रिय रहे। विद्यार्थीजी अपने जीवन में पांच बार जेल गए जिसमें दो बार कांग्रेस के नेता के रूप में में भाषण देने के कारण जेल गए। 1923 में आयोजित फतेहपुर जिला कान्फ्रेंस के सभापति के रूप में दिये गये उनके भाषण को अंग्रेज सरकार ने देशद्रोह माना और और उन्हें एक बरस साल की सजा सुनाई गयी। यह उनकी तीसरी जबकि पहली राजनीतिक जेल यात्रा थी। विद्यार्थीजी 20मार्च 1923 से 29 जनवरी 1924 को जेल से मुक्त हुए।
1925 में अखिल भारतीय कांग्रेस का चालीसवाँ अधिवेशन श्रीमती सरोजनी नायडू की अध्यक्षता में कानपुर में हुआ। स्वागत कार्यकारिणी के प्रधानमंत्री विद्यार्थीजी बनाये गये। इसके बाद वह 1926 में संयुक्त प्रांत काउंसिल के सदस्य के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए और उन्होंने उद्योगपति चुन्नीलाल गर्ग को मदनमोहन मालवीयजी के प्रचार के बावजूद पराजित किया और काउंसिल के सदस्य बने। जब सन 1929 में कांग्रेस ने निर्णय लिया कि कांग्रेसी सदस्य काउंसिल की सदस्यता छोड़ दे तो उन्होंने सबसे पहले त्यागपत्र दिया।
सन 1929 में फर्रुखाबाद में हुए युक्त प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गये और उसके बाद प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गये। 1930 का कांग्रेस का नमक सत्याग्रह आरंभ हुआ तो विद्यार्थीजी युक्त प्रांत के प्रथम डिक्टेटर मनोनीत किया गये। 'कर्मयोगी' के संपादक व 'भारत में अंग्रेजी राज' जैसी पुस्तक के लेखक पं सुंदरलाल ने अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि "उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के पास से तकाजे-पर-तकाजे आ रहे थे कि मैं तुरंत उत्तर प्रदेश (उस समय मुंबई में थे) लौट आऊँ। कानपुर में प्रदेश कांग्रेस का प्रांतीय सम्मेलन हो रहा था। स्वागतकारिणी समिति ने मुझे अध्यक्ष चुना था। गणेशजी स्वागतकारणी समिति के सभापति थे। ... उत्तर प्रदेश के सब बड़े नेता, जवाहरलाल जी को छोड़कर सम्मेलन में उपस्थित थे। नमक सत्याग्रह का बिगुल बज चुका था। ... फूलबाग में सम्मेलन का विशाल पांडाल प्रतिनिधियों, सत्याग्रही स्वयंसेवकों और युवा कार्यकर्ताओं से खचाखच भरा था। गणेश शंकर विद्यार्थी ने स्वागतकारणी के सभापति की हैसियत से प्रतिनिधियों का स्वागत किया। उन्होंने सावधान किया कि सरकार और उसके गुर्गे, इस बात की चेष्टा करेंगे कि प्रदेश को सांप्रदायिक दंगों में उलझा दें। इसलिए हमें सावधानी बरतनी होगी और यदि कहीं भी साम्प्रदायिक उत्पात होते हैं तो हमें उन्हें रोकने में अपने प्राणों की बाजी लगा देनी चाहिए। उन्होंने युवा देशभक्तों से भी अपील की कि उन्हें अहिंसात्मक उपायों को अपनाकर नमक सत्याग्रह के पूरे मनोबल के साथ भाग लेना चाहिए।"
प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन में विद्यार्थीजी के भाषण को राजद्रोहात्मक बताकर 25 मई को दफा117 में गिरफ्तार हुए और उसी दिन एक बरस की सख्त सजा दे दी गयी। उसी दिन शाम को कानपुर से हटाकर रात बारह बजे हरदोई जेल पहुंचाया गया। विद्यार्थीजी के बाद पुरुषोत्तमदास टंडन दूसरे डिक्टेटर बने। टण्डनजी की गिरफ्तारी के बाद पंडित सुंदरलाल को डिक्टेटर बनाया गया।
गणेश शंकर विद्यार्थी की सजा पूरी होने के छः दिन पहले गांधी-इरविन समझौते के तहत उन्हें जेल से 15मार्च, 1931 के स्थान पर 9मार्च, 1931 को रिहा किया गया। गांधी-इरविन समझौते में राजनीतिक कैदियों को रिहा करना था, परंतु भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को रिहा नहीं किया गया। उन्हें 23मार्च, 1931 को लाहौर के किले में फांसी दे दी गयी और फिरोजपुर के पास सतलुज नदी के किनारे उनके शव को अत्यंत गोपनीय तरीके से अग्नि के सुपुर्द किया गया। इसके विरोध में जवाहरलाल नेहरू के आदेश पर 25 मार्च को देशभर में हड़ताल हुई। मुंबई, कराची, लाहौर, कोलकाता मद्रास और दिल्ली में यह हड़ताल शांतिपूर्वक रही, किंतु कानपुर में अंग्रेजों ने हड़ताल को हिंदू-मुस्लिम दंगे में बदल दिया। कई दिन तक चलता रहा, हजारों घर जला दिये गये। और 500 से अधिक लोग मारे गए।
25 मार्च 1931 को जब दंगा शुरू हुआ तो विद्यार्थीजी घर से निकलकर दंगाइयों के बीच पहुंचकर लोगों को शांत करने, उनकी प्राण रक्षा करने की कोशिश करने लगे। शाम तक उसी धुन में मारे-मारे फिरते रहे। लोगों को बचाते वक्त उनके पैर में कुछ चोट आयी। 24 तारीख की रात में और 25 की सुबह दंगे का रूप और भी भीषण हो गया। और वह नौ बजे सुबह सिर्फ थोड़ा सा दूध पीकर लोगों को बचाने के लिए चल पड़े। उनकी धर्मपत्नी ने जाते समय कहा-  "कहां इस भयंकर दंगे में जाते हो।" उन्होंने जवाब दिया- "तुम व्यर्थ घबराती हो। जब मैंने किसी की बुराई नहीं की तब मेरा कोई क्या बिगड़ेगा? ईश्वर मेरे साथ है।" इतना कहकर हिंदी पत्रकारिता का भीष्म अपनी मृत्यु को मृत्युंजय बनाने के लिए घर से निकल पड़ा, इसके बाद 'प्रताप' संपादक कभी अपने घर वापस नहीं आये। शहीद होने के लगभग 22 वर्ष पहले 'सरस्वती' में लिखे जीवन के प्रथम लेख 'आत्मोत्सर्ग' में विद्यार्थीजी ने अपना मार्ग स्पष्ट कर दिया था। लेख के अंतिम शब्द "यदि आप में आत्मोसर्गी बनने की अभिलाषा हो तो आपको अवसर की राह देखने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आत्मोसर्ग करने का अवसर प्रत्येक मनुष्य के जीवन में, पल-पल में आया करता है। देशकाल और कर्तव्य पर विचार कीजिये और स्वार्थरहित होकर साहस को नहीं छोड़ते हुए कर्तव्यपरायण बनने का प्रयत्न कीजिये।"
विद्यार्थीजी के लिए शायद आत्मोसर्ग के लिए इससे अनुकूल अवसर शायद नहीं था। उन्होंने पटकापुर, बंगाली मोहाल, इटावा बाजार के करीब 150 मुसलमान स्त्री, पुरुष और बच्चों को वहां से बचाया। ... उस समय विद्यार्थीजी अपनी डेढ़ पसली का दुबला-पतला शरीर लिए नंगे पांव, नंगे सिर, सिर्फ एक कुर्ता पहने, बिना कुछ खाये-पिये, बड़ी मुस्तैदी और लगन के साथ घायलों और निःसहायों को बचाने में व्यस्त थे। किसी को कंधे पर उठाए हुए हैं तो किसी को गोदी में लिए अपनी धोती से उसका खून पोंछ रहे हैं। किसी को डांटकर तो किसी से आरजू मिन्नत से, तो किसी से सत्याग्रह द्वारा वह विपत्तिग्रस्त लोगों को नर-पिशाचों के चंगुल से बचाते रहे। इसी बीच लोगों ने उनसे मुसलमानी मोहल्ले में हिंदुओं पर होने वाले अत्याचार का हाल बताया। यह जानते हुए कि जहां की बात कही जा रही है, वहां मुसलमान ही मुसलमान रहते हैं और वे इस समय बिल्कुल धर्मान्ध होकर पशुता का तांडव-नृत्य कर रहे हैं, विद्यार्थी जी निर्भीकता के साथ उधर चल पड़े। रास्ते में उन्होंने मिश्री बाजार और मछली बाजार के कुछ हिंदुओं को बचाया और वहां से चौबेगोला पहुंचे। वहां पर विपत्ति में फंसे हुए बहुत से हिंदुओं को उन्होंने निकलवाकर सुरक्षित स्थानों पर भेजा औरों के विषय में पूछ ही रहे थे कि मुसलमानों ने उन पर और उनके साथ के स्वयंसेवकों पर हमला करना चाहा।
दूसरे दिन 5:30 बजे प्रताप प्रेस और विद्यार्थीजी के घर वालों को खबर मिली कि विद्यार्थीजी कहीं पर घायल हो गए हैं। पहले तो लोगों को विश्वास नहीं हुआ कि विद्यार्थीजी पर कोई हाथ उठाएगा, परन्तु जब समय बीतने के साथ कुछ निश्चित पता नहीं चला तो संदेह बढा और कई मित्रों ने उन्हें ढूंढना शुरू किया। 11:00 बजे रात तक बराबर उनकी खोज होती रही, पता लगाया जाता रहा, पर कुछ भी पता न चला। चौबेगोला आने तक की बात लोग बतलाते थे। पर इसके बाद कहां गए, कैसे घायल हुए, यह कोई न बतलाता था। यह हाल देखकर विद्यार्थीजी घरवालों और मित्रों को शंका होने लगी। परंतु फिर भी 26 तारीख को दिन भर खोज होती रही। 27 मार्च को पता चला कि अस्पताल में जो बहुत सी लाशें पड़ी हुई हैं उनमें से एक विद्यार्थीजी की लाश होने का संदेह है। तुरंत शिवनारायण मिश्र और डॉ जवाहरलाल वहां पहुंचे। यद्यपि लाश फुलकर काली और बहुत कुरूप हो गयी थी, फिर भी खद्दर के कपड़े, उनके अपने ढंग के निराले बाल और हाथ में खुदे हुए 'गजेंद्र' नाम आदि देखकर पहचान लिया। उनका कुर्ता अभी तक उनके शरीर पर था जेब से तीन पत्र भी निकले, जो लोगों ने विद्यार्थीजी को लिखे थे। उन्हें देखकर यह बिल्कुल निश्चय हो गया कि लाश विद्यार्थीजी की ही है।
जिस समय गणेश जी शहीद हुए उसी समय कराची में कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था। विद्यार्थीजी अस्वस्थ होने के कारण कराची कांग्रेस में नहीं गये थे और वह घर से बाहर भी नहीं निकल रहे थे, परंतु जब दंगे और नरसंहार की बात सुनी तो बीमारी को भूलकर दंगा शांत करने निकल पड़े। कराची में कांग्रेस के नेताओं को जब सूचना मिली तो कराची कांग्रेस ने इस दु:खद घटना पर निम्नलिखित प्रस्ताव पास किया।
"कानपुर कांग्रेस के दंगे में उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष गणेशशंकर विद्यार्थी की मृत्यु के समाचार पर अपना गहरा दु:ख प्रकट करती है। श्री गणेश शंकर विद्यार्थी कांग्रेसजनों में सबसे अधिक बेलौस कांग्रेसजन थे। उनमें किसी प्रकार की संप्रदायिकता छू भी नहीं गयी थी। इसलिए वे हर दिल और हर संप्रदाय के लोगों में हर-दिल-अजीज थे। कांग्रेस शोक संतप्त परिवार के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करते हुए इस बात पर अभिमान प्रकट करती है कि प्रथम पंक्ति के काम करने वालों में श्रेष्ठ कार्यकर्ता कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने अपना बहुमूल्य जीवन, मुसीबत और खतरे में पड़े लोगों को बचाने के प्रयास में और मारकाट-पागलपन को रोककर शांति की स्थापना में बलिदान किया। कांग्रेस सब लोगों से अपील करती है कि इस अत्यंत बहुमूल्य और उदार बलिदान का वे प्रतिशोध के लिए नहीं बल्कि शांति स्थापना के लिए, एक आदर्श के रूप में उपयोग करेंगें। कांग्रेसी दंगे के कारणों की जांच करने के लिए और उचित उपाय सुझाने के लिए तथा जख्म को भरने के लिए तथा आस-पास के जिलों में दंगे को फैलने से रोकने के लिए एक समिति मुकर्रर करती है। समिति में छः सदस्य होंगे, उसके चेयरमैन डॉक्टर भगवानदास होंगे और मंत्री पंडित सुंदरलाल।"
गांधीजी ने कराची से ही विद्यार्थीजी के संबंध में एक तार  बालकृष्ण शर्मा 'नवीनजी' के नाम भेजा था।-
 "काम में बहुत व्यस्त रहने के कारण मैं न तो कुछ लिख सका न तार दे सका। यद्यपि हृदय खून के आंसू रोता है, फिर भी गणेश शंकर की जैसी शानदार मृत्यु की संवेदना प्रकट करने को जी नहीं चाहता। यह निश्चय है कि आज नहीं तो आगे किसी दिन उनका निष्पाप खून हिंदू-मुस्लिम एक्य को सुदृढ़ बनायेगा। इसलिए उनका परिवार संवेदना का नहीं, बल्कि बधाई का पात्र है। ईश्वर करे उनका दृष्टांत संक्रामक साबित हो।"
                                                                         गांधी
दंगे की जांच-पड़ताल के सिलसिले में डॉ भगवानदास, पुरुषोत्तमदास टंडन, अब्दुल लतीफ बिजनौरी, मंजर अली सोख़्ता और जफरूल मुल्क को महीनों कानपुर में रहना पड़ा। कानपुर में रहकर सैकड़ों व्यक्तियों की गवाही लेनी पड़ी और बाद में बाबू शिवप्रसाद गुप्त के बनारस के निवास स्थान 'सेवा उपवन' में बैठकर रिपोर्ट लिखी गयी। समिति ने बड़े परिश्रम, अनुसन्धान और छानबीन के बाद कई सौ पृष्ठों की एक रिपोर्ट तैयार करके वर्किंग कमेटी के सामने पेश की। काफी समय बाद यह रिपोर्ट छपी। परंतु सरकार ने उसके प्रकाशन के 24 घंटे के अंदर उस रिपोर्ट को ज़ब्त कर लिया।
रिपोर्ट के अनुसार कानपुर में भीषण दंगा होने की सूचना सरकारी हलकों में बहुत पहले से थी। मौलाना मोहम्मद अली की मृत्यु पर कानपुर के हिन्दू दुकानदारों ने अपनी दुकानें नही बंद की। इसलिए मुसलमान दुकानदारों ने तय किया कि आगे किसी हिन्दू नेता के मरने पर जब हड़ताल होगी तो मुसलमान भी दुकानें नहीं बंद करेंगे। पुलिस के कुछ अफ़सर जिनके परिवार शहर में रहते थे, उन्होंने अपने परिवारों को बाहर भेज दिया और अपने रिश्तेदारों को यह पत्र लिखा है कि चूँकि अनकरीब दंगा होने वाला है, इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से हम अपने परिवारों को आपके यहां भेज रहे हैं। ऐसे पत्र कमेटी ने अपने कब्जे में लिए थे।
स्वर्गीय गणेश शंकर विद्यार्थी ने अनेक मुसीबतजदा मुस्लिम परिवारों को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया उनकी। अपील और रक्षा के प्रयत्नों से दंगे में उफान नहीं आ रहा था। इसलिए सरकारी अधिकारियों ने प्रयत्न किया कि उन्हें किसी तरह से समाप्त किया जाये। इसलिए उनसे प्रायोजित रूप से कहा गया कि कुछ हिंदू परिवार फंसे हुए हैं उन्हें आप बचाइए। यह कहकर उन्हें चौबेगोला की गलियों में ले गए और वहां ले जाकर एकांत में उन पर छुरे से आक्रमण किया गया। अपने बलिदान से पूर्व उन्होंने सर झुकाकर कहा था कि "मेरी हत्या करने से ही यदि आपको सन्तोष होता है तो सर हाजिर है।" निर्दयी गुर्गो ने बेरहमी के साथ उन्हें कत्ल कर दिया।

उपरोक्त अंश चंपारण सत्याग्रह का गणेश से 
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